Kanti Shukla

Romance

4.7  

Kanti Shukla

Romance

चाह गई चिंता मिटी

चाह गई चिंता मिटी

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यूँ तो सुरेश जी उच्च शिक्षित और सरकारी नौकरी में ऊँचे पद पर आसीन रहे परंतु ईश्वर ने उनके स्वभाव में जरा मिर्च की अधिकता कर दी थी। तो दंभी वाणी में कटुता बात-बात पर झलकती थी। छोटे-बड़े किसी का भी झट से अपमान कर बैठना उनके बांए हाथ का खेल था। फलस्वरूप न तो वे अपने कार्यालय में लोकप्रिय रहे और न अपनी मित्र मंडली में। लोग उनसे यथासंभव बचने का प्रयास करते थे। घर में भी उनका दबदबा और आतंक कायम रहा। उनके घर में प्रवेश करते ही एक ख़ामोशी एक दहशत सी पसर जाती। हँसते खेलते बच्चे अपने कमरे में बैठ किताब लेकर पढ़ने का नाटक करने लगते और पत्नी उनके व्यंग वाणों का सामना करते हुए आवभगत में लग जाती। जीवन भर उन्होंने स्वंय को सीधे सच्चे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया। उनकी प्रत्येक बात कटाक्ष भरी और सामने वाले की हँसी उड़ाने वाली रही। कार्यालय में मातहत सामने सर जी- सर जी करते रहते पर वही पीठ पीछे बड़ी बेदर्दी से अपनी भड़ास निकालते और उनके लिए अपशब्दों का भरपूर प्रयोग करते परंतु अहंकारी व्यक्ति को अपने सिवा अन्य कोई बात से क्या लेना -देना।

सुरेश जी भी अपने दंभ में डूबे बखूबी शान से जिए जा रहे थे।

तबादलों का मौसम था। हर विभाग में थोक भाव से स्थानान्तरण किए जा रहे थे। वर्षों से एक ही स्थान पर जमे सुरेश जी पर अफसरों की गिद्ध दृष्टि थी पर उनकी ऊपर तक की पहुँच के कारण वश नहीं चल रहा था। सौभाग्यवश चुनाव होने से सत्ता का सारा निज़ाम बदल गया और सुरेश जी पर शर-संधान करने भूत- भविष्य के सारे बदले निकालने का माकूल सुनहरा अवसर हाथ आ गया। फलतःसुरेश जी को

दूरस्थ आदिवासी इलाके में नवीन पदस्थिति होने का फर्मान थमा दिया गया। ऑफ़िस में यह ख़बर बला की तेजी से फैली। लोग एक - दूसरे को बधाई देने लगे और मिठाई की मांग करने लगे। खुसर फुसर करते जहाँ तहाँ दो चार के झुंड में जमा लोगों की जुबान पर यही एक जुमला परवान चढ़ रहा था कि मजा आ गया यहाँ खूब चाँदी काटी, मलाई वाली पोस्ट का भरपूर फायदा उठाया और हमें जलील करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी, अब नप गए। -- सुरेश जी भी ऑफ़िस का माहौल भाँप रहे थे पर विवश थे। तिलमिलाने के सिवा कोई चारा नहीं था। मन ही मन क्रुद्धित,क्षुभित और किंचित लज्जित परंतु खार खाए से सुरेश जी घर को चले पर उनका प्रबुद्ध और जुगाड़ू मस्तिष्क तबादला निरस्त कराने के उपाय सोचने में निरंतर सक्रिय था। 

घर पहुँचते ही लॉन में खेलते खिलखिलाते बच्चों पर नज़र पड़ी तो मारे क्रोध के आगबबूला हो गए मूड तो वैसे भी क्रांतिकारी था। बच्चे भी क्या करें उनके एकाएक समय के पूर्व आ जाने से अपने सुरक्षित बंकर में जाने में असमर्थ हो गए और रंगे हाथों पकड़े गए। सुरेश जी ने गालियों से नवाज़ते हुए दोनों बच्चों की निर्ममतापूर्वक घनघोर पिटाई प्रारंभ कर दी। बच्चों की चीख पुकार सुनकर पत्नी भागते हुए आई - अरे क्या हुआ, ऐसे क्यों मार रहे बच्चों को, क्या कुसूर है इनका ? ताव भरे सुरेश जी पत्नी की तरफ मुड़े और चिल्ला कर बोले - ये सब तुम्हारे ही बिगाड़े हैं, जरा भी तमीज़ नहीं, जब देखो तब खेल- पढ़ाई का नाम नहीं। ये तो होगा ही जब तुम्हारे जैसी गँवार और बेशऊर माँ होगी, कभी देखती भी हो कि ये क्या पढ़ रहे हैं या अपनी ही लीपापोती में लगी रहती हो, जैसी बंदरिया ख़ुद हो वैसा ही बच्चों को खों खों करना सिखा दिया है। अपने जमाने की समाज शास्त्र में एम. ए. पास पत्नी को सुनकर पसीना आ गया। क्या बच्चों के सामने उल्टी सीधी बातें करते हो जी - पत्नी के इस वाक्य ने मानों आग में घी का काम कर दिया। दहाड़ते हुए बच्चों को छोड़ पत्नी का झोंटा पकड़ घर के भीतर घसीटते हुए ले चले। जैसे तैसे उनकी गिरफ़्त से अपने को छुड़ाकर पत्नी बच्चों के आँसू पोंछ उन्हें कमरे में बिठा आई और सुरेश जी को पानी का गिलास थमाते हुए धीरे से बोली - अब बताइए आखिर हुआ क्या है। सुरेश जी कुछ झेंपते से बोले- क्या बताएं दुश्मनों ने लगाई बुझाई करके आदिवासी इलाके में तबादला करवा दिया, दिमाग खराब हो गया। ऑफिस के सारे लोग मजा ले रहे हैं और हँसी उड़ाती नजरों से देख रहे हैं। एक क्षण चुप रहकर पत्नी बोली - सरकारी नौकरी में तबादला होना ऐसा अस्वाभाविक नहीं कि हँसी उड़ाई जाए पर अपने लिए चिंता की बात यह है कि दूरस्थ पिछड़े इलाके में बच्चों की पढ़ाई लिखाई की व्यवस्था कैसे होगी और नए सिरे से अपने को जमने में भी दिक्कत होगी। गहरी सांस भरकर सुरेश जी बोले, हाँ पर क्या करें नई सरकार में अपनी पहचान का भी तो कोई नहीं और यदि कुछ दे दिबा कर काम बनाने की कोशिश की जाए तो उचित माध्यम भी नहीं सूझ रहा। लगता है जाना ही पड़ेगा, निरुपाय से निढ़ाल होकर सुरेश जी चुप हो गए।

घर और ऑफिस दोनों का वातावरण उबाऊ और भारी था। ऑफिस वाले सोच रहे थे कि ये जल्दी से जल्दी चार्ज दें और इस खुन्नसी चिड़चिड़े लीचड़ अफसर से पीछा छूटे। विदाई भोज की तैयारी चल रही थी पर रिलीवर अभी नहीं आया था। घर में बुझे मन से सामान की छँटाई चल रही थी, बस कबाड़ियों की मौज थी क्योंकि कई सालों से एक स्थान पर रहते हुए अटाला भी बहुत हो गया था। सुरेश जी ने हाथ-पैर बहुत फेंके पर कहीं से भी काम नहीं बना। अंततः चार्ज देना ही पड़ा। सुरेश जी बहुत आक्रोशित थे। एक तो ये सरकार भर बरसात में ही ट्रांसफर करती है न जाने क्यों। जुलाई का महीना बच्चों के एडमीशन का समय और ऐसी जगह साइट जहाँ आवागमन के साधऩ नाम मात्र के, जगह जगह नदी - नालों के उफान के कारण रास्ते बंद, जाएं तो कैसे जाएं। खैर येन केन प्रकारेण बड़े भारी मन से पत्नी और बच्चों से विदा ली कि तुम जब तक सामान पैक करके रखो, मैं चार्ज लेने के बाद अवकाश लेकर आता हूँ, तब सोचेंगे।

आशंकित मन से ट्रेन में बैठे सुरेश जी का चित्त बहुत व्याकुल था। एक झटके में जमा जमाया राजपाट छिन गया। उन्हें शुरू से ही आदिवासी एरिया से चिढ़ थी जहाँ न सभ्य मनुष्य दिखें, न शिक्षा न मनोरंजन के साधन मिलें, वहाँ रहने का क्या औचित्य - ऐसी सोच रखकर सदैव अपने अभिजात्य के अहं की संतुष्टि करते रहे.। अब मजबूरी में जाना पड़ रहा है तो मन में उथल पुथल हो रही थी। आर्थिक समस्याओं के चलते लगी लगाई बढ़िया नौकरी भी तो नहीं छोड़ी जा सकती इस महंगाई के युग में। सुरेश जी अपनी सर्विस लाइफ में ऐसे विवश कभी नहीं हुए थे।

ट्रेन के बाद बस से सफर करना था। बुरी तरह कुढ़े झल्लाए तमाम बाधाओं को पार करके सुरेश जी आखिर गन्तव्य तक पहुँच ही गए। जब तक बंगला एलॉट नहीं होता, विश्राम गृह में रहने की व्यवस्था और विवशता दोनों ही थीं। 

दूसरे दिन सुरेश जी जब जागे तो दिन चढ़ आया था। हड़बड़ा कर कमरे से बाहर आए तो आसपास का दृश्य देखकर मन प्रसन्न हो गया, तन में स्फूर्ति सी आ गई। गहन वन प्रांतर की चित्ताकर्षक नेत्रों को शीतलता प्रदान करती अप्रतिम दृश्यावली ने वास्तव में मन मोह लिया उनका और वे मंत्रमुग्ध से देखते रह गए। तभी समीप आती नारी छवि ने उनका ध्यान भंग कर दिया - चाय बनादें साब - वह युवती पूछ रही थी। - हाँ बना लो,सुरेश जी बोले। युवती तेजी से मुड़ी और रेस्ट हाउस की साइड में बने किचन की ओर चल दी। सुरेश जी की निगाहें जाती हुई आदिवासी सौन्दर्य की जीती-जागती तस्वीर का अवलोकन करने में व्यस्त हो गईं। सांवला रंग, कसी हुई सुगठित छरहरी देहयष्टि, बिना ब्लाउज के घुटनों तक बड़े करीने से कस कर लपेटी गई एक सूती धोती, बालों को समेट कर बनाया कुछ तिरछा सा जूड़ा जिसके आसपास रंग बिरंगी कंघियां और छोटे-छोटे मोर पंख खोंसे गए थे, गले में विभिन्न रंगों की छोटी बड़ी मालाएं और हंसली, ठोड़ी और खुली पुष्ट बांहों पर गुदनों का चित्रांकन, कमर में करधन,पैरों में चाँदी के कड़े और बेबाक मादक दृष्टि - अनोखी सी सौन्दर्य सृष्टि रच रहे थे। जब तक वह किचन के भीतर प्रविष्ट नहीं हो गई, उनकी जिज्ञासु तृषातुर सी आँखें उसका पीछा करतीं रहीं। उसके आँखो से ओझल होते ही उनकी तन्द्रा भंग हुई और कुछ संकुचित हो वे वॉशरूम की ओर बढ़ गए।

‎स्नानादि से जब तक निवृत्त हुए, वह आदिवासी युवती चाय और पराठें लेकर आ गई। सुरेश जी को चूंकि आज चार्ज लेना था तो शीघ्रता से नाश्ता निबटा कर चलने को तत्पर हुए। तभी वह युवती दोपहर के खाने के बारे में पूछने लगी - साब हम खाना बना लेंगे, आप दोपहर में आ जाएं,अब हमारी आपके पास ही ड्यूटी लग गई है। ठीक है तुम्हारा नाम क्या है। - हम सोमवती हैं साब। अच्छा कहकर सुरेश जी ऑफिस के लिए निकल लिए। दिन भर चार्ज, कर्मचारियों से परिचय, आवभगत में निकल गया। शाम जैसे ही रेस्ट हाउस पहुँचे तो मूर्ति बनी बैठी सोमवती पर नजर पड़ी - अरे तुम अपने घर नहीं गईं, यहीं हो सबेरे से क्या।- ये सोचकर नहीं गए कि आप खाना खाने न आ जाएं, बोली वह। सुरेश जी द्रवित से हो उठे। तुम अपने घर जाओ और ये सारा खाना भी ले जाओ, मैंने ऑफिस में ही बहुत कुछ खा लिया है। सोमवती के जाने के बाद लैंप की रौशनी में वह रेस्ट हाउस उन्हें कुछ भुतहा सा नजर आने लगा। पलंग पर लेटते ही बीबी- बच्चों की याद बड़ी तीव्रता से सताने लगी। कल मुख्यालय जाकर फोन कर लेंगे, सोचते- सोचते नींद के आगोश में चले गए।

अति व्यस्तता भरे दिन बीतने लगे। कार्य अधिक था, स्टाफ भी सहयोगी और आज्ञाकारी तो सुरेश जी को अपना गुस्सा निकालने अथवा कटु बोलने का अवसर नहीं मिल पा रहा था। सोमवती भी यथासंभव बढ़िया खाना बनाती और कमरा साफ सुथरा रखती। बंगला एलॉट हो गया था पर उसमें पुताई का काम चल रहा था। काम पूरा हो जाए तो फैमिली बुला ली जाए, यह विचार मन मेंं बार-बार आ रहा था। विद्यालय आदि का पता लगा लिया था, दूर के कस्बे मेंं अच्छा इंग्लिश मीडियम स्कूल जिसकी बस सुविधा भी है, उसी में बच्चों के एडमीशन की बात कर आए थे। सारी योजना बन गई थी,बस इसी हफ्ते चले जाएंगे, बच्चों की पढ़ाई का नुकसान हो रहा है। बेचारे रोज सोते समय अपने को तसल्ली दे रहे थे।

सुरेश जी के जाने का समय निकट आ गया मात्र दो दिन बचे थे कि उन्हें तेज बुखार चढ़ गया। एक तो बरसात का सीजन दूसरे मच्छरों का भयंकर प्रकोप। सुरेश जी की हालत खस्ता हो गई। अर्द्ध बेहोशी में पड़े कभी पानी मांग रहे थे तो कभी दर्द से जकड़े हाथ पाँव पटक रहे थे। सोमवती से उनकी ऐसी हालत देखी नहीं गई तो उसने रात वहीं रुकने का निर्णय कर लिया और तीमारदारी में जुट गई।  

सुबह नींद खुलने पर अपने बिस्तर पर बेसुध सोई सोमवती को देखकर सुरेश जी के होश उड़ गए - अरे ये मेरे बिस्तर पर कैसे। घबड़ा कर उन्होंने सोमवती को आवाज दी पर उसकी नींद इतनी गहरी थी कि वह टस से मस नहीं हुई तो सुरेश जी ने उसको हिलाकर जगाना चाहा। उन्होंने सोमवती की बांह पकड़ कर हिलाई ही थी कि उनके जीप ड्राइवर ने आवाज देते हुए पर्दा हटा दिया। भीतर का दृश्य देखकर ड्राइवर अवाक रह गया और शीघ्रता से सौरी साब कहता हुआ बाहर निकल गया। अभी तक ऐसी कोई पर्दादारी नहीं थी, सुरेश जी अकेले थे तो वह निश्चिंत होकर गाड़ी की चाबी लेने आ जाता था। - सुरेश जी के काटो तो खून नहीं। अब ये ड्राइवर न जाने कहाँ-कहाँ लगाई - बुझाई करेगा, बात पूरे स्टाफ में फैल जाएगी। क्या वे रात में ऐसे संज्ञाशून्य हो गए थे जो होश नहीं रहा,कोई अनहोनी कोई ऊँच-नीच तो नहीं हो गई उनसे। पत्नी को क्या मुँह दिखाएंगे - सोचते सोचते उनकी सिट्टी पिट्टी गुम हो गई, वे धम से एक कुर्सी पर ढ़ेर हो गए। तब तक सोमवती भी उठ गई थी जिसके सांवले मुख पर भेद भरी मुस्कान थी। सोमवती तो उन पर बिजली गिरा कर चल दी और सुरेश जी सर्वस्व लुटाए से सर झुकाकर बैठे थे। उनकी सारी तेजी- तुर्शी हवा हो गई थी।बड़ी देर बाद अधमरे से उठे, नहा धोकर तैयार हुए। सोमवती द्वारा लाई चाय पीने की इच्छा नहीं हो रही थी और बुखार से बदन टूट रहा था, डॉक्टर को दिखाना ही पड़ेगा और ड्राइवर को आवाज लगाने का साहस नहीं हो रहा था। लग रहा था कि पुनः लेट जाएं पर सोमवती के सोए बिस्तर की ओर देखने से डर लग रहा था। कांपती टांगों से किसी प्रकार बाहर आकर जीप में बैठ गए। ड्राइवर से बिना नजरें मिलाए धीरे से बोले - डॉक्टर के यहाँ ले चलो। जीप स्टार्ट करते- करते ड्राइवर पूछ ही बैठा - क्या हुआ साब, तबियत ख़राब है क्या। एक तो अधिकांश ड्राइवर साहब लोगों के मुँहलगे होते हैं तो कुछ धृष्ट हो जाते हैं दूसरे आज उसने अकल्पनीय दृश्य भी देख लिया था इसलिए उसके ओंठों की मुस्कराहट सुरेश जी का कलेजा खाक किए दे रही थी पर बेवश थे जवाब देने के लिए, हकलाते से बोले - हाँ कल से ही तेज बुखार है, मुझे तो होश ही नहीं था इसीलिए सोमवती यहीं रुक गई होगी, थकान से शायद नींद आ गई होगी तो मेरे बिस्तर पर ही लुढ़क गई, उसी को जगा रहा था मैं। ड्राइवर हँसा और बोला - वो तो ठीक है साब पर यदि यहाँ के आदिवासियों को पता चल गया तो मुसीबत में पड़ जाएंगे। इज्ज़त के पीछे मरने मारने को आमादा रहते हैं और पता है आपको बहुत समय से बाहरी अफसर आकर इनकी महिलाओं का शोषण कर रहे हैं, इसी मुद्दे को लेकर अब यहाँ जो कलेक्टर आए हैं, बहुत सख्त हैं। जगह - जगह उनके मुख़बिर हैं। यदि किसी ऐसे अवैध संबंध की भनक लग जाती है उन्हें तो सीधे शादी कराके ही दम लेते हैं। कई सरकारी कर्मचारियों पर गाज गिरी है और उन्हें विवश हो आदिवासी युवतियों से शादी करनी पड़ी है वर्ना नौकरी से हाथ धो बैठते। इस एरिया में बहुत संभल कर रहने की जरूरत है। सुनकर सुरेश जी की रूह कांप गई। घबड़ा कर बोले क्यों डरा रहे हो यार, ऐसा कुछ नहीं है।और कल तो मैं अपनी फैमिली लेने जा ही रहा हूँ, बस आज ये बुखार उतर जाए.।

दूसरे दिन ही सुरेश जी रवाना होगए। घर पहुँच कर भी मुख पर प्रसन्नता की झलक नहीं थी। उनकी अन्यमनस्कता पत्नी से छिपी नहीं रह सकी। उसके बार- बार पूछने पर बहाना बना दिया कि बुखार का प्रभाव है, कुछ अच्छा नहीं लग रहा। तुम चलने की तैयारी कर लो। तय हुआ सामान ट्रक से जाएगा और पति पत्नी बच्चे ट्रेन से। लाख प्रयास करने पर भी सुरेश जी स्वाभाविक और सहज नहीं हो पा रहे थे, ये नई चिंता उन्हें खाए जा रही थी।कहीं मित्रों परिचितों से भी मिलने जाने का मन नहीं हो रहा था। ट्रक पर सामान लोड करवा कर बिना किसी से मिले जुले निकल लिए। पहुँच कर दो- चार दिन व्यवस्थित होने में लग गए। उन्होंने नोट किया कि पत्नी की नज़र बचा कर सोमवती उनकी ओर देखकर मुस्कराती है और आमंत्रण भरी निगाहों से देखती है। सुरेश जी यह देख समझ कर और अधिक आकुल व्याकुल हो रहे थे और उनके मन में एक स्थायी भय और कुशंका व्याप्त हो गई थी। इस ऊहापोह और संशय की स्थिति ने उनके काम पर भी प्रभाव डालना आरंभ कर दिया।

‎जब से पत्नी बच्चे आए थे - सुरेश जी ने नियम से लंच पर घर आना शुरू कर दिया था।ऑफिस ज्यादा दूर भी नहीं था। उस दिन भोजन करते समय पत्नी बोली कि घर का कुछ जरूरी सामान खरीदना है राशन वगैरह, वहाँ ज्यादा जमा नहीं किया था कि जाना है। आप यदि जीप देदें तो शहर चले जाते हैं, तीन बजे तक बच्चे भी आ जाएंगे उनको भी साथ ले जाकर कुछ खिला पिला लाएंगे। सुरेश जी ने अपनी मौन सहमति दे दी और जीप बंगले पर छोड़ एक सहकर्मी की मोटर साइकिल से ऑफिस चले गए। शाम घर लौटने तक पत्नी वापस नहीं आई थी। इतनी जल्दी आने की संभावना भी नहीं थी। सुरेश जी फ्रेश होकर चाय का इंतज़ार कर रहे थे। अर्दली को आवाज दी पर उसके स्थान पर सोमवती चाय लेकर आई और बताया कि वह तो बाईसाब के साथ गया है। ठीक है तुम जाओ पर सोमवती वहीं डटी खड़ी रही और बड़े निःसंकोच भाव से बोली - साब कुछ रुपए चाहिए हमारे बाप को रोज दारू मुर्गा की तलब लगती है। उसको टालने के लिए सुरेश जी ने अपनी जेब से रुपए निकाले और बिना गिने ही उसके हाथ पर रख दिए और अपने बैड रूम में चले गए। वे आलमारी से अपने घर पहनने के वस्त्र निकाल ही रहे थे कि पीछे से सोमवती आकर उनसे लिपट गई, वे अरे- अरे करते हुए अपने को छुड़ाने की चेष्टा करने लगे पर उसकी जकड़ और तेज होती जा रही थी। सुरेश जी को स्वंय पर नियंत्रण रखना मुश्किल लगने लगा। हांफते हुए बोले - क्या करती है, छोड़ मुझे। सोमवती ने झटके से उन्हें छोड़ दिया और बोली रात को जब हमारा बाप दारू के नशे में गहरी नींद सो जाएगा तो हम आ जाएंगे । सुरेश जी के पैरों तले की जमीन खिसक गई - नहीं -नहीं यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं। तुम निकलो मेरे रूम से और वे खुद ही घबड़ाए बाहर निकल आए। सामने जीप की लाइट देख जान में जान आई, पत्नी लौट आई थी। 

रात में अपने बिस्तर पर लेटे सुरेश जी गहन चिंतन में लीन थे। उनकी आँखों पर पड़ा भय और संशय का पर्दा उतर चुका था। उनकी समझ में आ गया था कि ये सब उनको फंसाने की चालें हैं। यह सब पैसे के लिए बिछाया माया जाल है और उस दिन भी उनसे कोई भूल नहीं हुई थी वर्ना कुछ तो स्मृति शेष रहती। उनके सीने से गहरा बोझ उतर गया। बगल में लेटी पत्नी की ओर दृष्टि डाली, बेचारी थकी मांदी कितनी निश्चिंत होकर सो रही है, कितने दिन बाद उसे अपने घर में चैन नसीब हुआ है। नहीं वह हरगिज किसी ऐसे वैसे जाल में नहीं फँसेंगे चाहे कुछ भी हो। उन्होंने बड़े स्नेह से सोती पत्नी को अपने ह्रदय से लगा लिया। 


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