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Abhilekh Maurya

Romance

4.0  

Abhilekh Maurya

Romance

बस थोड़ी दूरी का ही साथ

बस थोड़ी दूरी का ही साथ

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अक़्सर आते-जाते रास्ते में हमें कभी कोई ऐसा मिल जाता है, जिसे हम चाह कर भी नहीं भूल पाते हैं। बस ऐसी ही थी वो जिसे मैं आज तक भूल नहीं पाया हूँ, उसे मैं मिलना नहीं कह सकता हूँ वो बस एक अधूरी मुलाकात थी मेरे नजरिए से देखें तो क्यूँकि बात तो हुई ही नहीं थी हम दोनों के बीच पर दिल जरूर उस समय जरूरत से ज्यादा ही धड़का था शायद मेरे साथ-साथ उसका भी।


आइये अब पूरे वाकया को देखते हैं।मैं रोज़ की तरह ही आज भी घर से कोचिंग के लिए निकला था पर पता नहीं क्यूँ जैसे ही कोचिंग के गेट तक पहुँचा मेरा बदल गया, मैं आज कुछ लिखना चाहता था इसीलिए कोचिंग के अंदर ना जा कर मैं वहाँ से पैदल ही सीधे कंपनी गार्डेन के गेट नम्बर एक पर पहुँच गया । फिर पाँच रुपये की टिकट लिया और अंदर प्रवेश किया। 


मैं अक़्सर यहाँ लिखने आया करता था और मौसम भी सर्दियों का होने के कारण मैंने अपनी एक बेंच सुनिश्चित कर ली थी , क्योंकि वहाँ बैठ कर लिखने से एक तो मुझे पर्याप्त धूप मिल जाया करती थी और दूसरी बात वहाँ का माहौल शांत होने की वज़ह से लिखने में एक अलग ही रुझान आजाता था।


 मैं कंपनी गार्डन से निकला ही और डायरेक्ट स्टेशन तक जाने वाली ऑटो या ई-रिक्शा कुछ भी मिल जाये मैं उसी की तलाश करने लगा।


" भइया स्टेशन चलेंगें क्या ? " मैं बोला ।

" किधर.... ? " ई-रिक्शा वाला बोला ।

" 1 नम्बर, " मैं फिर बोला ।

" बैठ जाइए, " रिक्शा वाला बोला।

" भइया अब चलेंगें.....?" बहुत ही प्यारी सी मीठी सी आवाज़ में एक लड़की बोली।


जो वहीं कंपनी गार्डन के गेट नम्बर 1 पर मुझसे पहले से खड़ी थी, उसके बोलने के अंदाज़ से लग रहा था, कि शायद पहले उसको उसी रिक्शे वाले ने जाने से मना कर दिया था। इसीलिए वो मेरे स्टेशन के लिए बैठने की बात सुन कर दुबारा पूछी थी। 


उसको मैंने बहुत ही ध्यान से देखा ज़ब वो ई-रिक्शा में बैठने के लिए चढ़ रही थी। काली साड़ी में वो गोरा बदन एकदम अप्सराओं सी लग रही थी, उसने अपने दाहिने हाँथ से पहले हल्का सा रिक्शा में लगी छड़ को पकड़ा फिर पहले अपना एक पैर ऊपर रखा फिर दूसरा और मेरे सामने बैठ गई। कुछ देर तक वो मुझे देखती रही ज़ब तक उस रिक्शे में मेरे और उसके सिवा कोई ना था, पर कुछ दूर चलने पर यहीं-कोई प्रयाग संगीत समिती के जस्ट सामने से जब एक आंटी और आकर बैठ गईं तो उसने अपनी नज़रें हटा ली फिर भी मैं उसे देखता रहा। 


उसने दोनों हांथों में सुनहरे रंग की आठ-आठ चूड़ियां पहन रखीं थी, जो उसके गोरे हाँथो को बहुत ही सुंदर बना रहे थे, सच बताऊँ मैं तो उसके हाँथो को थाम कर बैठना चाहता था पर सभ्यता नाम की चीज मुझे रोक कर रखी थी। मैं बस बैठा-बैठा उसको देखता रहा बीच-बीच में वो भी मुझे देखती रही ।


मेरा उसने तो पहली ही नज़र में ही धड़का दिया था , पर उसने मेरे दिल से अपने दिल के जुड़ाव संकेत उस वक़्त दे दिया जब होटल ली लिसायर के पास फायर ब्रिगेड चौराहे पर रिक्शा रुका और ट्रैफिक में एक बुढ़िया वहाँ पेन बेच कर भीख मांग रही थी, वैसे उस पेन की कीमत 3 रुपये से ज्यादा नहीं थी पर वो 10 रुपये में एक पेन दे रही थी।


मैंने उस बुढ़िया को देखते ही मन मे उनसे पेन खरीदने का निर्णय कर लिया था , क्योंकि मैं लिखता रहता हूँ तो पेन मेरा एक हथियार था। पर जैसे ही वो बुढ़िया वहां पेन ले कर पहुँची उस लड़की ने एक पेन लिया और दस रुपये उसको दे दिए और जब तक में अपने पर्स से पैसे निकालता ट्रैफिक लाइट हरी हो गई और रिक्शा वहाँ से आगे बढ़ गया।


मैं तो पेन नहीं ले सका पर उस लड़की ने पेन ले के मेरे दिल को छू लिया था, मतलब जो मैं सोच रहा था शायद वही वो भी सोच रही थी इसीलिए तो उसने पेन खरीद ली थी। उसके बाद वो हल्की-हल्की मुस्कान से साथ मेरे ओर देखी फिर दूसरे तरफ देखनी लगी, कुछ देर तक मुझे उसको देखने का और मौका मिला फिर वो लीडर रोड़ में रिक्शा रूकवाई और उतर गई। उसके जाने के बाद मैं पीछे मुड़ कर तब-तक उसको देखता रहा जब-तक वो मेरे आँखों से ओझल नहीं हो गई।


बस इतनी सी ही कहानी थी, उस अल्हड़ लड़की की और मेरी जो जाने के कई दिन बाद तक मेरे जहन में अपनी याद छोड़ कर चली गई।  वो आज भी मुझे याद आजाती है, कितना अजीब साथ था बस कुछ दूर का ही साथ पर ज़िन्दगी भर ना भूल सकने वाला साथ।






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