Abhilekh Maurya

Drama

4.4  

Abhilekh Maurya

Drama

वो रात

वो रात

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409


रात के लगभग साढ़े आठ बज़े थे, कोचिंग की छुट्टी हुई और मैं रोज़ की तरह ही आज भी कोचिंग से निकलते ही पहले वहीं पास के ठेले पर गोलप्पे (पानीपुरी) खाई फ़िर घर के निकली। 

वैसे आज का मौसम बहुत ही सुहावना था, हल्की-हल्की ठण्डी हवा चल रही थी, ऐसा लग रहा था कहीं दूर बारिश हो रही हो। मैं आराम से मौसम को एन्जॉय करते हुए अपने गांव जा रही थी। अभी कुछ दूर ही पहुँची थी कि मेरे गाँव का वो सुनसान रास्ता मुझे मिल गया, मैं तो हमेसा इसी रास्ते से आया-जाया करती थी। पर आज इस मौसम के कारण पता नहीं क्यूँ मुझे अज़ीब सी उलझन हो रही थी, रोज़ कोई ना कोई तो आता जाता रहता था पर सज कोई भी नहीं था उस रास्ते पर । मुझे अज़ीब सी उलझन हो ही रही थी कि बादलों ने अपना काम भी शुरू कर दिया, बारिश होने लगी । मैंने अपनी छतरी निकली जो इतनी ख़राब हाल में थी शायद ही मैं उससे खुद को भीगने से बचा पाती पर कुछ तो भीगने से बचाती ही इसीलिए मैंने अपनी छतरी खोली और धीरे-धीरे चलने लगी। 

सामने से किसी चीज की रौशनी में कोई आता हुआ दिखाई दिया, पहले तो मैं डर गई पर जैसे ही मैंने पास से देखा तो वो मेरे घर के बगल वाले अनुभव भइया थे उनको देख कर मेरा डर कुछ कम हुआ । वो बोले अरे! अनू तुम्हें बारिश में आने की क्या जरूरत थी वहीं कहीं रुक जाती किसी पेड़ की छाए में, मैं आ ही तो रहा था। पर भइया मुझे क्या पता था कि आप आने वाले हो । हाँ, ये बात भी थी कि तुम्हें तो पता भी नहीं था। चलो अब मैं आगया हूँ ना तुम मेरे छाते में आजाओ फिर चलते हैं। हम लोग कुछ दूर चले ही थे कि पीछे से तेज़ हवा आई और छतरी भइया के हाथों से छूट कर उड़ गई, बारिश भी तेज हो चुकी थी।

अनू सुनो जब तक बारिश नहीं थम जाती चलो पास में एक शिव मंदिर है वहीं बैठ जाते हैं। नहीं भइया मैं वैसे भी आधी भीग ही चुकी हूँ मैं भीगते हुए घर चली जाऊंगी आप बारिश थमने का बाद आजाइयेगा । तुम भीगते हुए जाओगी तो आंटी मुझे डाटेंगी, क्यूँकि उन्होंने ही मुझे तुमको बुलाने के लिए भेजा था। मैं चौक गई, माँ ने इनको भेजा है। 

तभी वो मुझे मंदिर की ओर चलने का इशारा करते हुए बोले हाँ आंटी ने ही मुझे भेजा है। 

मंदिर में बैठे हम दोनों लोग बारिश के थमने का इंतजार कर रहे थे, वो मुझसे बातें कर रहे थे, पता नहीं क्यूँ मुझे ऐसा लग रहा था जैसे वो मुझे पीछे से छूने की कोशिश कर रहे हों, भइया ये आप क्या कर रहें मैंने चिल्लाकर बोला। वो अपना हाँथ मेरे पीछे से हटाते हुए बोले कुछ नहीं बैठो !

नहीं मैं जा रहीं हूँ मां मेरा इंतज़ार कर रही होगी। फिर वो बोले अरे! आंटी ने ही तो मुझे यहाँ भेजा है । मैं सोची भइया मेरे पढ़ाई में हमेसा मेरी सहायता करते हैं अगर मैं ऐसे घर चली गई और उनको माँ से डांट पड़ गई तो वो मेरी हेल्प भी करना बंद कर देंगें। बस यही सब सोच कर मैं फिर उनके पास जा कर बैठ गई। पर इस बार थोड़ा दूर बैठी, मंदिर छोटी थी और पुरानी भी तो लगभग हर जगह से पानी टपक रहा था, मज़बूरन मुझे उनके पास जा कर बैठना पड़ा।

कुछ देर तक तो सब ठीक था, पर अचानक से मुझे पीछे से कोई पकड़ा और पीछे खीचने लगा, भइया बचाओ मैं बोली पर वो तो और तेज़ से हँसने लगे। मुझे अंधेरे में कुछ साफ तो दिखाई नहीं दे रहा था पर ज़ब बिजली चमकी तब मैंने देखा कि मेरे पास अनुभव भइया को ले कर कुल चार लोग थे, जो भूखे दरिंदों की तरह मुझपर टूटे हुए थे। 

कोई मेरे कपड़े उतार रहा था तो कोई मेरे नितंबों को जबरन ही अपने हांथो से छू रहा था, इन सब बीच मुझे बस माँ की याद आरही थी और इन लोगों से खुद को छोड़ देने के लिए गिड़गिड़ा रही थी। पर कोई मुझे छोड़ने को तैयार नहीं था, मैं कुछ देर को शांत हुई फिर अचानक से मेरा हाँथ वहीं पास में शिवलिंग के पास रखे त्रिशूल पर पड़ा मैंने अपनी पूरी ताकत लगा कर उसको पकड़ा, और सामने खड़े अनुभव के दोनों पैरों के बीचोबीच पूरी ताकत से पैर मारा, पर जैसे ही मैं खड़ी हुई तो मुझे महसूस हुआ कि मेरे तन पर तो कोई कपड़े ही नहीं बचे थे उठते ही सारे कपड़े नीचे गिर गए। 

अब मैं अगर खुद की लाज़ बचाने के लिए उन फ़टे हुए कपड़ों को उठाती तो मुझे अपनी इज़्ज़त खोनी पड़ती, मैंने उस अंधेरे को अपना कपड़ा समझा और भागने लगी चारो मेरे पीछे भेड़िये की तरह दौड़ रहे थे। अब मैं ज्यादा नहीं दौड़ सकती थी इसलिए बचने के लिए वही झाड़ियों में छुप गई पर कुछ ही देर बाद उन चारों में से एक मेरे पीछे आया और तीनों को बुलाने के लिए बोला मिल गई यहाँ जल्दी आओ...!

वो तीनो उसकी आवाज़ सुनते है और मेरे पास आते उससे पहले ही मैं उसके गर्दन में त्रिशूल घोप दी वो तड़पता हुआ नीचे गिर गया। 

मैं तो इस्तब्ध रह गई, उस बारिश में भी मुझे गर्मी का अहसास होने लगा मैं भागने की कोशिश करती पर पैर जाम से हो गए थे। मैंने पहली बार किसी को मरते देखा था, वो भी उसको मैंने मारा था मुझे खुद पर विस्वास नहीं हो रहा था। बिजली के चमकने पर मैंने देखा कि वहाँ अब आस-पास कोई नहीं दिख रहा था, मैं फिर झाड़ियों से निकली और कुछ दूर ही चली थी, रास्ते में वो तीनों मुझे मिल गए अनुभव तो मेरे पैर मारने के बाद बैठा-बैठा चल रहा था । 

मुझको अब उससे डरने की कोई जरूरत नहीं थी पर बचे दोनो ने मुझ पर झपटने की कोशिश की मैंने त्रिशूल को ढाल बनाते हुए खुद का बचाव किया और बारी-बारी से दोनों के पेट में उसको घोंप कर घुमा दी जिससे अब उनके बचने के कोई चांस न बचे। 

अब अनुभव मुझसे माफ़ी मांग रहा था, मैंने सोंचा माफ़ कर दूं पर मेरे अदंर वाली अनू बोल रही थी, ये ही मेन आदमी है, इसको मत छोड़ना अनू..........., इसको मत छोड़ना अनू। 

इसीलिए मैंने उसके पीठ पर त्रिशूल घोंपा और इन चारों के खून के छिट्टों से लथपथ बारिश में भीगते हुए और उस अंधेरे में खुद की लाज़ बचाते हुए, दौड़ कर घर पहुँची। घर पहुँची तो देखा माँ दरवाजे पर ही मेरा इंतज़ार कर रही थी। घर पहुचते-पहुचते मैं उसी अंधेरे को धन्यवाद बोल रही थी जिस अंधेरे के कारण आज मैं मुसीबत में फंसी थी, पर धन्यवाद इसलिए बोल रही थी क्योंकि आज वही अंधकार ने मेरा वस्त्र बन कर मेरी लाज़ बचाई थी। बस इतनी सी ही थी उस रात की कहानी। 

शिक्षा - हमें अपनी मुसीबतों से डट कर सामना करना चाहिए। ' 


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