बोनसाई
बोनसाई


दिसंबर कि सुबह थी, करीब 10 बजे थे। मैं नहा-धो के तैयार हो के, कुछ देर पढ़ाई करने के बाद ,छत पर गई । नीचे कमरे में ठंड हो रही थी पर बाहर धूप निकल आया था तो मैंने सोचा कुछ देर छत पे बैठूं । सर्दियों कि धूप कितनी अच्छी लगती हैं न।
मैं एक कुर्सी निकाल कर धूप में बैठ गई। तभी मुरझाए पौधों को देखकर ख्याल आया कि कल पानी नहीं डाला गया था। पौधों को पानी देने की जिम्मेदारी मेरी थी। यूं कहें तो ये रूटिन बना हुआ था कि गर्मियों में रोज़ और सर्दियों में एक दिन के अंतराल पे पौधों में पानी देने हैं। दरअसल हमारे वाले घर कि दीवारें हमारे छत से ऊंची हैं इसलिए सर्दियों में सारे पौधों को ठीक से धूप नहीं लग पाता , जिस वजह से गमले की मिट्टी गीली रह जातीं हैं ।
मैने पौधों में पानी डाला और फिर कुर्सी पर खामोशी से आकर बैठ गई पर मेरा मन नहीं।मेरा ध्यान मेरे छत के कोने में एक गमले में लगे उस अमरुद के पेड़ पर था जो छोटे से गमले लगे होने की वजह से बढ़ नहीं पा रहा था। मैं कितनी ही बार पापा से कहा था कि ये इतने कम मिट्टी में बढ़ नहीं पाएगा, इसे कहीं जगह देख कर जमीन पे जा कर लगा दीजिए। कम से कम ये बढ़ेगा तो इसपर कभी तो फल लगेंगे हम नहीं तो कोई तो खा पाएगा। पर पापा तो मानते हीं नहीं कहते हैं " समय समय पर कटाई छंटाई करते रहो ये गमले में भी फल देने लगेगा। वो ये नहीं समझ पा रहे के बोनसाई का या कोई हाइब्रिड पेड़ ही गमले में बढ़ सकता है फल दे सकता है पर ये अमरुद का पेड़ ऐसे में नहीं बढ़ सकता। मेरी जिंदगी भी तो कुछ ऐसी ही है अभी। हमारे घर के हालात भी तो सर्द हैं।
प्यार की बारिश मिल रही और सहयोग का धूप भी मिल ही रहा है,कहीं ना कहीं, पर जब तक जड़ें फैलाने के लिए जरूरत के अनुसार अवसरों की मिट्टी नहीं मिलेगी , जड़ें फैलाने की स्वतंत्रता नहीं मिलेगी हम कैसे बढ़ पाएंगे, परिणाम का फल कैसे आएंगे। यहां भी तो पापा समझ नहीं पा रहें कि जैसे हर पेड़ बोनसाई या हाइब्रिड नहीं हो सकता वैसे ही हर किसी में सिमीत व्यवस्था के साथ बढ़ाने की गुणवत्ता नहीं होती। हम भी तो उस अमरुद के पेड़ की तरह ही हैं।
"कल्पना, इतनी देर हो गई ,अब नीचे आ जा बेटा नहीं तो फिर चक्कर आऐगा।" आ रही आवाज से अचानक मैं अपने ख़्यालों से बाहर आई। मां पता नहीं कब से आवाज लगा रहीं थीं। कहते हैं न मां सब जानतीं हैं............ !