Prabodh Govil

Thriller

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Prabodh Govil

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बन्नो तेरा कजरा लाख का

बन्नो तेरा कजरा लाख का

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बन्नो तेरा कजरा लाख का !

आर्यन बहुत ख़ुश था।

उसके पिता आज की शानदार पार्टी के साथ होने वाली मीटिंग में उसे कंपनी के निदेशक मंडल में शामिल करने वाले थे। पापा ने कई महीनों के बाद अपनी नई कार लेकर उसे शहर के सबसे शानदार होटल में अकेले जाने की अनुमति दे दी थी।

कोरोना संक्रमण के कारण महीनों के लॉकडाउन के चलते उसे घर से बाहर कोई नहीं जाने देता था। आज भी उसे अनुमति केवल इसलिए मिल गई कि कंपनी के बोर्ड की मीटिंग यहां होनी थी और पहली बार इसमें अा रही मार्था शैरोल की ख़ास मेज़बानी आर्यन के परिवार को ही करनी थी।

मार्था कॉरपोरेट जगत की एक जानी - मानी हस्ती थी जो सिंगापोर से ख़ास तौर पर यहां आमंत्रित थी।

आर्यन से जब उसकी दादी ने भी साथ लेे चलने की बिनती सी की तो उसे उनका ख़ास ध्यान रखना पड़ा।

गाड़ी को अच्छी तरह सैनिटाइज़ किया गया। आर्यन ने दादी के लिए उम्दा डिज़ाइनर मास्क भी लेे लिया और उधर दादी भी डोरिया की कड़क साड़ी में लिपट कर पीछे वाली सीट पर आ बैठीं।

दादी भी क्या करें, पिछले चार महीनों से जब घर के बच्चे- मर्द तक घर में ही बंद थे तो उन्हें बाहर घूमने को कहां से मिलता? बैठे- बैठे दिनभर पैर जुड़ा जाते थे। आज पोते के साथ मिला ये मौक़ा लपक लिया।

शहर की ख़ाली सी सड़कों पर आर्यन जैसे- जैसे गाड़ी को आगे बढ़ा रहा था वैसे ही दादी भी घर के गुज़रे वक़्त के पथरीले इतिहास की मानस यात्रा पर निकल पड़ी थीं। उन्हें सब ऐसे याद आया जैसे कल की ही बात हो।

सत्तर बरस बीत गए।

एक सौ सोलह रुपए पगार थी उनकी। किराए के दो कमरों में छः प्राणियों का कुनबा।

कहा करते थे कि नौकरी से चुक जाऊंगा तो अपना धंधा करके चार पैसे कमाऊंगा। बच्चों से कहते, जब मेरी आमदनी "फ़ोरफिगर" में हो जाएगी तो तुम्हारी मां तुम्हारे जन्मदिन पर थाली में आटे के हलवे की जगह तुमसे केक रख कर कटवाएगी। रोज़ शाम के समय अपने दफ़्तर से लौटते ही घर में कुटीर उद्योग सा फैलावड़ा फैलाए रहते।

बच्चों के ही नाम से जाने क्या- क्या बनाते- वीर इंक, उमा बिंदी, सुषमा काजल,शन्नो लाली, कुसुम साबुन... और भी न जाने क्या- क्या!

रात को बैठ कर डिब्बों और पैकेटों में पैक करवा- करवा कर रखते।

अपने गांव के बच्चों को पकड़ लाते, बनाना भी सिखाते और घर - घर जाकर बेचना भी। बच्चों के हाथ भी चार पैसे आते।

अब वो तो बेचारे दुनिया में न रहे पर "कुसुम सोप फैक्ट्री" की बदौलत ही आज शहर के पांच सितारा होटल में रखी गई इस मीटिंग में देशी- विदेशी मेहमानों की तीमारदारी करने आते हुए आर्यन के साथ घूमने- फिरने दादी भी चली आईं। मीटिंग तो शाम को थी।

आज की ख़ास मेहमान मैडम मार्था की भी एक दिलचस्प कहानी थी।

आर्यन की बहन अनन्या ने जर्मनी से एम बी ए किया था। मैडम मार्था तब वहां प्रोफ़ेसर थीं। बाद में सुना कि मैडम करोड़ों के पैकेज पर कॉरपोरेट सेक्टर में चली गईं। एक बार चाइना की कोई कंपनी भी उन्हें लेे गई।

अनन्या ने अपनी इस डेशिंग प्रोफ़ेसर से संपर्क लगातार बनाए रखा। यही कारण था कि आज वो "कुसुम सोप" के निदेशक मंडल की बैठक में स्पेशल इन्वाइटी थीं।

इधर एक चमत्कार और हुआ था। कोरोना वायरस के संक्रमण से हुए लॉक डाउन ने लोगों की जान, सेहत, रोज़गार, व्यापार को चाहे जितना भी नुक़सान पहुंचाया हो, कुसुम सोप फैक्ट्री के मालिक चौपड़ा साहब पर तो एक मेहरबानी भी की थी।

संक्रमण से बचने के लिए जारी किए गए दिशा - निर्देशों ने उनके साबुन की खपत बेतहाशा बढ़ा दी थी।

लोग हर थोड़ी - थोड़ी देर बाद देर तक रगड़ कर साबुन से हाथ धो रहे थे।

साबुन की खपत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। लोग आटा, चावल, दाल जैसे ज़रूरी राशन से भी पहले भरपूर साबुन, सैनिटाइजर और मास्क जैसी चीज़ें ख़रीद कर रख रहे थे।

चौपड़ा साहब के तेज़ दिमाग़ ने इस स्थिति का तत्काल लाभ उठाया। सैकड़ों मजदूरों को काम देने की पेशकश कर के उन्होंने उत्पादन कई गुणा बढ़ा दिया।

उनके प्रोडक्ट्स के महंगे विज्ञापन भी दिए गए। उन्होंने तात्कालिक ज़रूरत के कुछ और प्रोडक्ट्स भी आनन - फानन में लॉन्च कर दिए।

सोना बरसने लगा।

इसी सबसे उत्साहित होकर चौपड़ा साहब ने इस बार ये भव्य कार्यक्रम रखा था ताकि आगे की रणनीति तैयार करके व्यापार को और चमका सकें।

बिटिया के कहने पर ही उन्होंने मैडम मार्था को विशेष रूप से आमंत्रित किया था।

कहा जाता था कि मार्केटिंग मैनेजमेंट की ये महिला मिट्टी को भी छू दे तो सोना बरसने लग जाता था। इसी से सम्मान सहित सब मैडम मार्था को बुलाते थे।

दोपहर की चाय पर सारी चर्चा सुन कर दादी ने तो दांतों तले उंगली दबा ली। उनके पल्ले ये बात बिल्कुल नहीं पड़ी कि साबुन बनाने और बेचने के कारोबार में कोई विदेशी औरत ऐसा क्या बताएगी जो उस पर लाखों रुपए लुटा दिए जाएं!

दादी को अपना ज़माना और अपने दिवंगत पतिदेव याद आ गए जो साबुन के साथ और भी न जाने क्या - क्या बनाते थे और सारे मोहल्ले में उस सामान को बेचने पर भी इकट्ठे दो - चार सौ रुपए भी मुश्किल से ही कभी हाथ में देख पाते थे।

चौपड़ा साहब कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने मैडम मार्था के भव्य स्वागत के बावजूद उनसे अपनी निजी मीटिंग और उनके व्यवसाय परामर्श को बेहद गुप्त रखा। उनका कोई मुलाजिम इस कंसल्टेंसी के दौरान उनके साथ नहीं रखा गया।

मैडम मार्था ने सिल्वर कलर के उस पाउडर का सैंपल चौपड़ा साहब को उपलब्ध कराते समय उसके फॉर्मूला से संबंधित उनके सवाल को सफ़ाई से टाल दिया।

ये था ही कितना! बस, एक काजल की डिबिया जितना। ये लाखों टन साबुन में मिलाने के लिए पर्याप्त था।

महीने भर बाद जब देश भर की अन्य महिलाओं के साथ - साथ घर की नौकरानी वाशिंग मशीन में धोने के बाद दादी की साड़ियां निकाल रही थी तो दादी ने मैला पानी देख कर एक बार फ़िर दांतों तले उंगली दबा ली। इतना मैल? सचमुच साबुन में जादू था।

भोली- भाली दादी की आंखों में मार्था मैडम का चमत्कार कौंध कर रह गया।

दादी बेचारी क्या जानें कि ये मैला पानी उनके कपड़ों से नहीं निकला !


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