भूली दास्तान
भूली दास्तान
गुड़गांव में चले जाओ तो दिल्ली बॉर्डर निकलते ही ऊंची ऊंची बहुमंजिला चमकदार इमारतों की अंतहीन पंक्ति दिखाई देती है लेकिन गुड़गांव सदा से ऐसा न था, 1965 के आसपास तो यह एक अलसाया सा रेतीला कस्बा था, जिसका कैरों के जमाने का बनाया एक अदद गोल बस अड्डा, शीतला माता का मंदिर, जहाँ अंधश्रद्धा से उन्मत्त ग्रामीण जनता की भीड़ की भीड़ हर वार त्यौहार रेलवे स्टेशन पर उतरा करती औऱ यथा सामर्थ्य तांगा या अन्य कोई सार्वजनिक मोटर वाहन, जो अक्सर काला भूंड टेम्पो जिसे गणेश कहा जाता था, में ठसाठस भर कर पहुंचा करती।
मंदिर के पीछे की और एक तालाब के किनारे नाई मुण्डन करने का सामान लिए बैठे रहते। जहाँ मुण्डन करते हुए सधे हाथ सधी जुबान से जजमान की हैसियत का आँकलन कर कथा किस्सा पेल पूल कर कुछ अतिरिक्त पा जाने की आशंका में नापित कुल अपनी सारी प्रतिभा उड़ेल देता। कालांतर में ये मनघडंत किस्से सस्ते कागज पर दो रंग की स्याही से छपकर छोटी-छोटी दस बारह पन्नों वाली पुस्तिकाओं में छप कर इतिहास का हिस्सा बन जाते।
इसी तालाब या जोहड़ जिसे पिंचोखड़ा जोहड़ के नाम से जाना जाता था जो न जाने कब से गुरुग्राम भीम कुंड के नाम से पुकारा जाने लगा था के पीछे बसे जाट बाहुल्य गांव, गुडगांव गाँव से लगती सड़क जो बस अड्डे से रेलवे स्टेशन को जाती थी। महा स्वार्थी शरणार्थियों की बस्ती भीम नगर का नाम धरकर उसारी गई थी। उसी की ताल मिलाते हुए मस्जिद के पीछे की तरफ़ और पटौदी सड़क तक फैली दूसरी बस्ती अर्जुन नगर बसाई गई। पचास ग़ज के कच्चे मकान शरणार्थियों को दिए गए थे। थोड़े सही हालात के शरणार्थी चार आठ मरला में आ बस रहे थे जिनको कुछ जमीन वगैरह का क्लेम हासिल हुआ था। इससे भी अच्छी आर्थिक हालत में जो लोग थे वे नई कालोनी में आ बस रहे थे लेकिन खारे पानी की समस्या के कारण कस्बा नौकरीपेशा लोगों की पसंद न बन पाया था, उन्हें तो तीस किलोमीटर दूर देश की राजधानी दिल्ली या पचास किलोमीटर दूर फरीदाबाद या रेवाड़ी ही पसंद था।
कुछ ही सालों में जाट बाहुल्य रेतीला गाँव गुडगाँव कर्मठ पंजाबी बाहुल्य क्षेत्र में बदल गया। जाट और दीगर खेतिहर जातियों ने उनसे नई नई चीजें सीखी। सादा खाना चटपटा हुआ, धोती कुर्ते औऱ लहंगे ओढ़नी की जगह कुर्ता पजामा और पंजाबी सूट सलवार ने ले ली लेकिन मिलनसार और सदा मदद को तैयार स्थानीय आबादी पंजाबी शरणार्थियों जैसी मतलबपरस्त औऱ पैसे की पीर न हो सकी।
ऐसी ही बस्ती में तीन भाइयों और दो बहनों में सबसे छोटा कांतिलाल सन 1965 में पैदा हुआ। अपने पिता की साइकिल पंक्चर बनाने की दुकान पर बैठ-बैठ कर उसने सरकारी स्कूल से दसवीं भी कर ली और आगे पढ़ने का इरादा लेकर दो सौ तीन सौ रुपये का जुगाड़ भिड़ाने की सोचने लगा। एक दिन यूँ ही पंक्चर लगाते वक्त उसकी बायीं आंख में कोई लोहे का छोटा पुर्जा लगा जिससे उसे दिखना कम हो गया। उसकी जीवन में आगे बढ़ने की उम्मीदों को धक्का लगा। भाइयों ने कोई मदद न की, बहनों के पास सूखी सहानभूति के अलावा कुछ खास था नहीं। कई जगह धक्के खाने के बाद उसे कोई सुधार होता न दिखाई दिया तो वह पटियाला चला गया।तीन महीने वहाँ रहने के बाद एक तो उसकी आंख में काम चलाऊ रोशनी आ गई दूसरे उसने रिश्तेदार की टाइपिंग सिखाने की दुकान पर बैठकर हिंदी अंग्रेजी टाइपिंग सीख ली।
1985 आ गया था। उसका टाइप का खोखा गुरुद्धारे के सामने सब्जी मंडी में चल निकला था, इधर उधर से हाथ पैर मारकर उसने प्राइवेट बी ए कर ली थी। इस दौरान उसने जीवन का अहम सबक भी हासिल कर लिया था, चाहे कितने भी भाई, बहन, रिश्तेदार हों बुरे वक़्त में पैसा ही काम आता है इसलिए भावना के वशीभूत होकर किसी को पैसा न दो चाहे अपना कितना भी सगेवाला क्यों न हो। दूसरे कोई रास्ता भी पूछे तो तब तक मत बताओ जब तक उससे दो चार रुपये का स्वार्थ न सधता हो। परोपकार, सेवा वगैरह दूसरों से बेगार लेने के फैंसी शब्द हैं। ऐसे शब्दजाल में फंसना नहीं है, बग़ैर स्वार्थ किसी का कोई काम करना नहीं है।
कांतिलाल जैसे आदमी का कोई दोस्त भी हो सकता है, यह बड़ी हैरानी की बात थी लेकिन ऐसे आदमी का भी दोस्त था सुनील ! सुनील भिवानी का रहने वाला था। कांतिलाल की तरह ही उसका परिवार भी पंजाबी शरणार्थी था। बस यहीं तक ही सुनील और कांतिलाल में समानता थी। कांतिलाल के विपरीत सुनील परोपकारी और मिलनसार स्वभाव का व्यक्ति था। उसके दो छोटे भाई और दिल की बीमारी से ग्रसित एक बहन थी। उसकी ममतामयी माँ और स्नेहिल पिता ने उसमें परोपकार और दया-ममता के बीज बचपन से ही डाले थे। उसे लगता था कि उसका जीवन सघन वृक्षों से आच्छादित एक लंबी सड़क है और उसे जीवन में कभी भी अभाव का सामना नहीं करना पड़ेगा।
अभी उसकी पढ़ाई चल ही रही थी कि उसके परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। उसके पिता भिवानी स्थित कोर्ट कॉम्प्लेक्स में टाइपिंग का काम करते थे। एक दिन शाम के वक़्त साइकिल से घर आते हुए उन्हें एक ट्रक ने कुचलकर मार दिया। जब पिता का शव घर आया, तब उसकी माँ बदहवास सी खड़ी थी। भाइयों और बहन के उदास चेहरे देखकर सुनील ने मन ही मन एक दृढ़ निर्णय लिया। जीवन में कुछ भी हो, कैसा भी समय आये वह अपने परिवार को पिता की कमी महसूस न होने देगा। उसने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी और पिता का टाइपिंग का ठिया संभाल लिया था। उसका टाइपिंग का काम जम गया। बहन का इलाज दिल्ली के अच्छे डॉक्टर से होने लगा। दोनों छोटे भाई पढ़ाई छोड़कर बिजली मिस्त्री का काम सीखने लगे। कच्ची छत वाले मकान की जगह लाइन पार नई आबादी में 10 मरले का पक्का मकान खड़ा हो गया। एक नग स्कूटर भी खरीद लिया गया।
कोई और होता तो इतने पर सब्र कर लेता। लेकिन यह उसका लक्ष्य नहीं था। उसकी खुशहाली और मेहनती स्वभाव को देखकर लड़की वाले भी फेरे लगाने लगे लेकिन उसे लगा कि शादी ब्याह के झंझट में फंस कर उसका परिवार को उठाने का कर्म अधूरा रह जाएगा। आने वाली अपने साथ ख़्वाब भी लेकर आएगी। वह उसके ख्वाब पूरे करेगा या अपनों के। उसने आजीवन अविवाहित रह कर परिवार को कामयाब करने का निर्णय किया। कोर्ट तहसील की जान पहचान काम आयी और एक दिन वह रजिस्ट्री महकमे में बाबू भर्ती हो गया। पहली पोस्टिंग गुड़गांव मिली थी। वह अपने परिवार को लेकर गुड़गांव आ बसा था।
छोटे भाइयों को सदर बाज़ार में बिजली रिपेयर की छोटी सी दुकान खुलवा दी थी। एक भाई की गुड़गांव में ही लडक़ी देखकर शादी कर दी थी। पैसा आया तो गुड़गांव नई कॉलोनी में 10 मरले का दुमंजिला मकान बन गया। गाड़ी भी आ गई, बहन का इलाज़ नियमित तौर पर दिल्ली के अच्छे अस्पताल से चलने लगा था। यूँ लगा कि अब मुसीबतों के दिन लद गए। वह ख़ुद माँ बहन के साथ पहली मंजिल पर रह रहा था। भाई और उसकी पत्नी नीचे रह रहे थे। फिर दूसरे भाई की भी शादी हो गई और वह बीवी के साथ भिवानी में रहने लगा। एक तो उसका बिजली के काम में दिल न लगा था, दूसरा उसकी ससुराल भिवानी में थी। चलो, जिसको जो अच्छा लगे।भिवानी में मकान तो था ही, उसमें भी रौनक हो गई थी।
साथ रह रहे भाई का नाम पवन था और उसकी पत्नी का नाम ममता। नाम ही उसका ममता था, लेकिन उसे पैसे के सिवा किसी से ममता न थी। इसमें उसका क़सूर कम था क्योंकि गुड़गांव का पानी, हवा और मिट्टी ऐसे हैं कि सब पैसे को अहमियत देने वाले हो जाते हैं। कहते हैं कि यहाँ तो श्रवण कुमार ने भी माता पिता की बहँगी रख दी थी और उनसे किराया माँग लिया था। द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य जिसको उन्होंने धनुर्विद्या सिखाई भी न थी, उस एकलव्य से फीस के तौर पर अंगूठा माँग लिया था।
पवन की बिजली मिस्त्री की थोड़ी सी इंकम थी। वैसे भी वह सतमासा था, थोड़ा काम करते ही थक जाता था।इसके विपरीत ममता ठाढ़ी थी, बुलार भी ज्यादा थी। सुनील की कमाई का बड़ा हिस्सा हड़प करने के मंसूबे बांधा करती थी लेकिन सास के सामने पेश न चलती थी इसलिए दुःखी और परेशान रहती थी। उसके मायके वाले भीमनगर के थे। छोटी-छोटी कच्ची कोठियों में बड़े-बड़े परिवारों ने गुजारा किया था इसलिए पैसे की अहमियत बखूबी समझते थे। कैम्प का माहौल ऐसा होता है बंदा मल्लो मल्ली झक्की,शक्की और तिकड़म भिड़ाने में माहिर हो जाता है।
ममता और उसके मायके वाले मुँह पर मीठे-मीठे पीठ पीछे गोभी खोदने की कला में पारंगत थे। सुनील की बहन के इलाज पर पैसा खर्चना उन्हें अखरता था लेकिन मुँह पर भाई बहन के प्यार के सदके जाया करते। बहन की तबीयत ऐसी रहती थी क्षण में मासा क्षण में तोला। बहुत परहेज से रखना पड़ता था लेकिन होनी होकर रहती है, भाणा वापर ही जाता है। सुनील को दफ़्तर के काम से चंडीगढ़ जाना पड़ गया। जाती बार उसके मन में आशंका थी कि पीछे से कोई इमरजेंसी हो जाए तो कौन ख्याल रखेगा। पवन तो वैसी ही सुस्त और अकर्मण्य है। उसकी बीवी चालबाज। बूढ़ी माँ कहाँ भागी फिरेगी। उसे जाना पड़ा, पीछे से बहन की तबीयत ऐसी बिगड़ी कि फिर न संभली। एक महीना एस्कॉर्ट्स, जी बी पंत और आल इंडिया मेडिकल के डॉक्टरों की निगरानी में बेहतरीन इलाज करवाया लेकिन बहन ने न बचना था और न बची।
बहन के गुजरने के बाद सुनील को लगा कि उसकी दुनिया उजड़ गई। जिंदगी में कोई काम न रहा, जिसके लिए घर जाने की उतावली रहती थी, वो अब वहाँ नहीं थी। जीवन मे एक अजीब सा खालीपन भर गया था। इस गैप को भरने का काम, ज़ख्म को सहलाने का काम ममता ने बखूबी किया था। मां भी अब अक्सर बीमार रहती थी। सुनील को क्या चाहिए, क्या नहीं। ममता पूरा ख्याल रखती थी। राखी आई तो उसने सुनील की कलाई सूनी न रहने दी। बाकायदा इसरार करके राखी बांधी और नेग भी लिया। सुनील ने समझा कि ममता का स्वभाव बदल गया है। ख़ुद ममता ने उसे बताया कि उसमें बचपना था, इसलिए मायके वालों को अपना हितैषी समझती थी। अब उसे अपनी भूल का एहसास हो गया है। शादी के बाद ससुराल ही लड़की का असली घर होता है। मां के गुजर जाने के बाद तो वह हर बात के लिए ममता के डिपेंड हो गया था।
पवन की कमाई अब भी कुछ खास न थी लेकिन ममता को कोई आर्थिक तंगी नहीं देखनी पड़ी। पांच सालों में पवन के दो बच्चे हुए। एक बेटी और एक बेटा। बेटा तो पवन जैसा चुपचाप रहने वाला और शांत प्रकृति का था, लेकिन बेटी अपनी शरारतों से और चटकदार बातों से घर भर में रौनक लगाए रखती थी। सुनील को अपने जीवन का मकसद मिल गया था। उसे लगा उसकी बहन वापिस लौट आई है। पहले से भी ज्यादा स्वस्थ और चुलबुली होकर। जीवन हस्बे मामूल पटरी पर आ गया था।
ऐसा करते करते साल 2015 आ गया था। परोपकार की आदत की वजह से सुनील के दोस्तों का दायरा बहुत बड़ा था। कहीं क्लब की गतिविधियां, कहीं गुरुद्वारा साहब की सेवा संभाल। कांतिलाल से मेल मुलाकात खालिस दफ़्तरीं कामों के लिए थी, जो विपरीत स्वभाव होने के बावजूद गाढ़ी मित्रता में बदल गई। मोबाइल के जमाने में आमने सामने मिलने की जरूरत तो कम ही पड़ती है लेकिन कहीं न कहीं टकराव हो जाने पर फुरसत से बतलाया जाता था। विषय कुछ भी हो कांतिलाल, सुनील के विचारों की कद्र करता था और सुनील, कांतिलाल के स्वार्थी स्वभाव के बावजूद कभी वाद विवाद की स्थिति आने नहीं देता था।
ऐसी ही एक सुबह कांतिलाल का फोन आया कि उसे जरूरी बात डिसकस करनी है। कहीं बाहर मिलते हैं।सुनील ने तुरंत हामी भर दी थी। राजीव चौक, गुड़गांव शहर का मेन एंट्री पॉइंट है। इससे आगे कोर्ट काम्प्लेक्स पार करके आप बाजार की तरफ़ आयेंगे तो सोहना चौक मिलेगा। सोहना चौक से दाएं तरफ गुरुद्वारा रोड है।उसी सड़क पर सिधेश्वर मंदिर से थोड़ा आगे गुरुद्वारे के ठीक सामने कमला नेहरू पार्क है। दोनों दोस्त वहाँ पर मिले।
कमला नेहरू पार्क की लोकेशन ऐसी है कि भीड़ भरे बाजारों में एक खुली जगह वही बचती है इसलिए बहुत लोग इसे मिलने जुलने के स्थल के रूप में इस्तेमाल करते हैं। सुनील बाद में पहुंचा था, कांतिलाल एक बेंच पर चिंतित बैठा बॉल खेलते बच्चों को अनमने ढंग से देख रहा था। उसे सुनील के आने का एहसास न हुआ। उसकी आवाज सुनकर वह बेंच से उठा और बोला, आओ टहलते टहलते बात करते हैं।
सुनील- क्या बात है,बड़े टेंस लग रहे हो।
कांतिलाल- हाँ, टेंस तो हूँ। बच्चे ने परेशान कर रखा है।
सुनील- ओ,मैंने सोचा कुछ गंभीर बात है। बच्चे तो तंग करते रहते हैं।
कांतिलाल- लेकिन मेरे वाला तो ज्यादा ही तंग कर रहा है।
सुनील- हर एक बाप को यही लगता है उसका बच्चा ज़्यादा परेशान करता है।
कांतिलाल- अरे यार, हद होती है हर बात की। उसके हिसाब से पैसा तो सबके पास होता ही है। जरूरत उसे खर्च करने की है।
सुनील- कहता तो सही ही है।
कांतिलाल- "क्या सही है इसमें।"
सुनील हँस दिया था, "बच्चे अपने आस पास में ही देखते हैं। हमने पॉश एरिया में मकान बनाया। जहां सबके पास पैसा है, सब लोगों के बच्चे ऐसा ही सोचते होंगे। इसके उलट गरीब बस्ती के बच्चे सोचते होंगे कि पैसा सबके पास नहीं होता क्योंकि उनके आसपास किसी के पास नहीं है, लेकिन पॉश एरिया में सबके पास है। हम लोग ग़रीबी, लाचारी से निकल कर आए हैं जैसी हम पैसे की अहमियत समझते हैं हमारे बच्चे कैसे समझेंगे !उन्होंने अभाव के दिन देखे ही कब हैं।"
"चलो, पैसा ज़्यादा या कम खर्च करने की बात इग्नोर भी कर दो तो कम से कम पढ़ाई पर ही ध्यान दे ले। पिछले दो साल से सी ए के एक पार्ट पर ही अटका है। कम से कम पढ़ाई अच्छे से हो जाती तो रोजी रोज़गार की सोच लेते।" कांतिलाल दुःखी दिख रहा था।
"हां ! यह बात तो सीरियस है। उसे मेरे पास भेजना। मैं उसे समझाऊंगा। देखता हूँ क्या कहता है। आ तो जाएगा न।",सुनील ने पूछा था।
"हाँ, उम्मीद तो है मना नहीं करेगा। बाक़ी आजकल वह अपनी मर्जी का मालिक है।" यह कहकर दोनों दोस्तों ने विदा ली।
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सुनील की मृत्यु आकस्मिक नहीं थी, लेकिन अपेक्षित भी नहीं थी। यह ठीक है उसके जीने का कोई उद्देश्य नहीं रह गया था। माँ और बहन की मौत के बाद वह पूरी तरह भाई के परिवार पर निर्भर हो गया था। उनकी खुशी में खुश होकर वह अपने आप को संपूर्ण पाता था लेकिन ममता कब तक ममतामयी बहन का अभिनय करती रहती। धीरे धीरे करके उसके एकाउंट में पैंसठ लाख रुपये जमा हो गए थे। मकान भी उसके नाम पर आ गया था। सुनील ने जिस तरह उस पर विश्वास करके सब कुछ उसे सौंप दिया था उसके बाद एक न एक दिन यह तो होना ही था।
सुनील के ऑफिस की राजनीति की वजह से सुनील को झूठी शिकायत पर निलंबित कर दिया गया था। आय से अधिक संपत्ति के मामले और रिश्वत के आरोप में उसे चार चार चार्जशीट थमा दी गयी थी। ऊपर से उसे कब नामुराद दिल की बीमारी लग गई थी। ममता और उसके बच्चों ने सुनील की तनख्वाह के बलबूते पर खुला खर्च करना सीख लिया था। ऊपर की कमाई तो बंद हुई सो हुई, निलंबन अवधि के दौरान गुजारे लायक मिले पैसों पर भी ममता की नज़र रहती थी। छोटी छोटी बातें बड़ी बनाकर पेश की गई और सुनील को खुद को डिफेंड करने के लिये हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की जरूरत आन पड़ी लेकिन हाइकोर्ट का निज़ाम ऐसा है कि मोटी फ़ीस के बग़ैर न वकील मिलता है न ही फ़ाइल ही सरकती है। सुनील का सारा पैसा ममता के बैंक एकाउंट में था। ममता ने पैसा देने से साफ़ इंकार कर दिया था। ज़्यादा दबाव पड़ने पर वह बच्चों को लेकर मायके चली गई।
सुनील और उसके छोटे भाई पवन में इस बात को लेकर झगड़ा हो गया। रात को सोया सुनील सुबह अस्पताल में ही उठा। उसे दिल का हल्का सा दौरा पड़ा था। भाई की बीमारी देखकर पवन चाहता था कि ममता सारे न सही कुछ पैसे सुनील को दे दे लेकिन ममता न पसीजी। पवन शुरुआत से ही पत्नी से दबता था इसलिए ज्यादा जोर डालकर वह भी न कह पाया। सुनील थोड़ा स्वस्थ होकर घर आ गया था लेकिन घर पर भी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। नाते रिश्तेदार के नाम पर भिवानी में रहने वाला छोटा भाई था लेकिन वे पति पत्नी तो रस्मी रस्म अदायगी के नाम पर हाल चाल पूछ गए थे। कभी कभी फोन भी कर लेते। इससे ज्यादा उन्होंने न जरूरत समझी न सुनील ने ही उनको कुछ करने को कहा।
हालात दिन ब दिन बदतर होते देख सुनील हमेशा चिंतित रहता। होटल ढाबों का खाना खाने के कारण और बग़ैर देखभाल के नियमित दवाई न खाने की वजह से उसकी तबीयत बिगड़ती गई। उसके दोस्त उससे बहुत कम मिलने आते। गुड़गांव जैसे शहर में दोस्ती काम-काज से संबंधित ही होती है, जब कोई आदमी किसी के काम का नहीं रह जाता तब उससे मिलने कोई नहीं आता। औपचारिकतावश हाल-चाल पूछने के लिए एक आध बार जाया जा सकता है, इससे ज्यादा नहीं। ममता लौट आई थी लेकिन वह नीचे ही रहती। बच्चों को भी उसने ताऊ के पास जाने से मना कर रखा था। सुनील आँगन से होकर सीढियां चढ़कर ऊपर जाता था लेकिन उनमें से कोई भी उससे बातचीत न करता। उनकी बेरुखी सुनील को बहुत कचोटती लेकिन वह कर ही क्या सकता था।
अपनी जीवन भर की कमाई वह ममता को दे चुका था। मकान भी ममता के नाम पर था। ममता की कोई मजबूरी न थी कि वह सुनील से बात करती। सुनील को पानी के लिए भी पूछने वाला कोई न था।
चार्जशीट की सुनवाई आखिरी स्टेज पर थी। प्रॉसिक्यूशन कोई भी आरोप उसके विरुद्ध प्रमाणित नहीं कर पाया था। सुनील के नाम पर न तो आय से अधिक संपत्ति थी न ही रिश्वत के आरोप ही साबित किये जा सके थे।एक्सपर्ट्स को उम्मीद थी कि गवर्नमेंट उसे बहाल कर देगी।
एक दिन सुनील की तबीयत कुछ ज़्यादा ही ख़राब थी। वह कमरे के बाहर आँगन में चारपाई पर लेटा था। ममता ऊपर आई, सुनील ने भी उसे देखकर अनदेखा किया।
"भैया ! आप तो कभी हमारा हालचाल ही नहीं पूछते क्या हम इतने बुरे हैं !" ममता उससे मुख़ातिब थी। सुनील ने फिर भी उसकी तरफ़ मुँह न घुमाया। तब तक ममता उसके सामने आ गई थी।
"भैया ! मैं आपसे कह रही हूँ। आपने हमारी सेवा-संभाल का यह बदला दिया कि आपको हमारी शक़्ल देखना भी मंजूर नहीं है लेकिन एक बात कहे देती हूँ आप अगर हमसे नफ़रत करते हैं तो हमारे घर में किस हक़ से पड़े हैं। आपका पुश्तैनी मकान भिवानी में आपके भाई-भाभी कब्जाए बैठे हैं लेकिन फिर भी वो आपके सगे वाले हैं हम नहीं। आपकी नौकरी में बहाली होने वाली है,अगर आप हमसे मतलब नहीं रखना चाहते हैं, कोई रिश्ता नहीं रखता नहीं चाहते हैं तो आप अपना रहने का प्रबंध कहीं और कर लें। आपको कभी मैंने अपने सगे भाई से ज़्यादा सम्मान दिया था इसलिए आपकी मुसीबत के दिनों में आपको मकान खाली करने को नहीं कह सकी।लेकिन आपकी बेरुखी और नफ़रत देखकर मैं कहने को मजबूर हूँ कि आप यहाँ से जल्दी से जल्दी चले जाएं।" ममता यह कहकर सीढ़ियां उतरकर चली गई।
सुनील की आंखों से झर-झर आँसू बहने लगे। वह घुटे-घुटे स्वर में रो रहा था। आज उसे अपनी माँ की बहुत याद आ रही थी। वह रोता जाता और कहता जाता, "माँ, इस ज़ालिम दुनिया में नहीं रह सकता। मैं तेरे पास आ रहा हूँ माँ !"
इस घटना के बाद सुनील गहरे अवसाद में चला गया। आत्महत्या करने का विचार उसके मन में घर कर गया।अब उसे दुनिया में कोई चीज दुःखी नहीं करती थी। वह सोचता,उसे जीना ही नहीं है। फिर वह क्यों दुःख मनाए या अफसोस करे। मदनपुरी रोड के श्मशान- घाट में वह कई बार गया था। अब वह श्मशान-घाट उसे अपनी जगह लगती थी। उसमें लगे बैंच पर बैठकर उसे शांति का अनुभव होता।
एक शाम उसने निश्चय किया आज रात वह नींद की गोलियाँ खाकर सदा की नींद सो जाएगा लेकिन वह अपने साथ हुए धोखे की दुखद कहानी कहे बग़ैर चुपचाप इस दुनिया से रुखसत नहीं होना चाहता था इसलिए उसने अपनी सारी दास्तान एक पत्र में लिख दी। पत्र को तैयार करके उसे बहुत शांति और सुकूँ का अनुभव हुआ। उसे लगा कि अब उसका मरना सार्थक हो जाएगा लेकिन वह एक बात से फिक्रमंद था। उसकी मृत देह को सबसे पहले ममता ही देखेगी, इसकी संभावना सबसे ज़्यादा थी और उसके लिए इस पत्र को ग़ायब करना कौनसी मुश्किल बात थी, इसलिए बेहतर होगा कि वह इस पत्र को किसी विश्वसनीय व्यक्ति के हवाले कर जाए।बहुत देर सोचने के बाद उसका ध्यान कांतिलाल की तरफ़ गया। जितना वह सोचता जाता उतना ही उसे यक़ीन होता जाता कि इस काम के लिए सबसे विश्वसनीय व्यक्ति कांतिलाल ही है। उसने कांतिलाल को फोन किया और उसे मिलने का अनुरोध किया।
कांतिलाल ने शाम को आठ बजे मिलने का भरोसा दिया।
कांतिलाल अपनी एक्टिवा पर आठ बजे से कुछ पहले ही आ गया था। उसने एक्टिवा मेन गेट के पास गली में ही खड़ी की और दरवाजा खोलकर अंदर आ गया।ममता ने देखा कि कौन आया है।
"नमस्ते ममता। मैं कांति ! सुनील भाई किधर है।"
ममता ने उसकी नमस्ते का कोई प्रत्युत्तर न दिया। लेकिन हाथ के इशारे से बता दिया कि सुनील उपर है।
कांतिलाल सीढ़ियां चढ़कर ऊपर गया। सुनील बेड पर लेटा था। उसने शेव भी की हुई थी और साफ नाइट सूट पहन रखा था।
उसे देख सुनील उठ बैठा। कांतिलाल से पूछा, "कुछ पिओगे। मैंने कोल्ड ड्रिंक मंगा रखी है।"
कांतिलाल ने कोल्ड-ड्रिंक की बोतल में से काँच के गिलास में कोल्ड-ड्रिंक डाली, एक घूँट भरकर बोला, "हाँ सुनील ! बताओ,कैसे बुलाया, क्या काम था।"
यह कहकर वह सुनील के चेहरे की तरफ़ देखने लगा।
"कांति !आज रात को मैं सुसाइड करूंगा। मेरे जीने का कोई उद्देश्य नहीं रह गया है। मेरी कमाई, मेरा मकान ममता ने हड़प लिया है। मैंने उसे अपनी छोटी बहन मानकर अपने इन्हीं हाथों से उसके हवाले किया था। सब मेरी ही भूल है। मैंने दुनिया में सबको अपने जैसा जाना लेकिन दुनिया में कोई भी मेरे जैसा भावुक और मूर्ख नहीं है। मेरे जैसे आदमी के जीने का कोई मतलब नहीं है।" सुनील दृढ़ स्वर में बग़ैर संतुलन खोए बोल रहा था।
कांतिलाल ने उसके स्वर में नीरवता, उदासी और दृढ़ता को एक साथ अनुभव किया। उसे अपना थूक रुकता हुआ लगा।
"यार क्या बात कर रहा है तू ! मेरी एक्टिवा तुम्हारे घर के सामने गली में खड़ी है। ममता ने मुझे आते देखा है।और भी शायद किसी ने देखा है। अगर आज तुझे सुसाइड करना है तो मुझे क्यों बुलाया। यह तो सारा इल्ज़ाम मेरे सिर आ जाएगा।" कांतिलाल बड़ी मुश्किल से बोला।
सुनील ने बड़ी आहत निगाहों से कांतिलाल को देखा और सोचा-इस आदमी से मैं क्या उम्मीद लगाए बैठा था।यह भी तो भीमनगर कैम्प का रिफ्यूजी है। कांतिलाल से इससे ज्यादा क्या उम्मीद लगाई जा सकती है।
सुनील के मन के भावों को समझ कर कांतिलाल, सुनील के पास आकर बैठ गया। उससे अनुनय के स्वर में बोला, "मेरा भी मन करता है कि तुमसे कहूँ कि तेरा दोस्त बैठा है तुम क्यों मरने की बात करते हो लेकिन तुम जानते हो कि मैं ऐसा नहीं कहूँगा। मैंने तुम्हारे त्याग को नजदीक से देखा है। तुम्हें इसके बदले में गुड़गांव में कुछ नहीं मिलेगा मैं पहले से ही जानता था। मैं अक्सर सोचता था कि जब ममता की असलियत तुम पर खुलेगी तुम उस सच का कैसे सामना करोगे लेकिन तुम हार्ट-पेशेंट और कंगाल दोनों ही हो। तुम्हारे लिए सुसाइड ही बेस्ट ऑप्शन है लेकिन आज मना मत करना, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ। तू एक हफ़्ता रुक जा। तू मुझे न फंसा।तू जो कहेगा मैं करूंगा।"
सुनील उसकी बात सुनकर क्षीण स्वर में बोला, "ठीक है कांति ! लेकिन तुम्हें मेरा एक काम करना होगा। यह मेरा सुसाइड नोट है।" उसने पत्र एक बंद लिफ़ाफ़े में कांति के हवाले किया। "इस पत्र को मेरे मरने के बाद पुलिस को दे देना। बाय हैंड न दे सको तो बाय पोस्ट भेज देना।"
कांतिलाल ने वह पत्र सुनील से लेकर अपनी जेब के हवाले किया। फिर उससे एक हफ़्ता रुकने का वायदा दुबारा लिया और चुपचाप कान दबाकर वहाँ से रवाना हुआ। यहाँ तक कि एक्टिवा भी दूर जाकर स्टार्ट की।
अगले दिन सुबह-सवेरे ही कांतिलाल और उसकी पत्नी हिल-स्टेशन पर घूमने चले गए।
जब पंद्रह दिन बाद घूमघाम कर वापिस आए तब तक सुनील की कहानी ख़त्म हो चुकी थी। उसे मरे दो दिन हो गए थे। आने जाने वाले आ जा रहे थे। ममता सब को अपने सुनील भैया की अच्छाई और शराफ़त के किस्से रो-रोकर सुना रही थी। पवन भी मायूस चेहरा लिए जमीन पर बिछी दरी पर बैठा था। भिवानी से भाई-भाभी भी आये थे। वे भी अपनी फ़र्ज़ अदायगी बखूबी कर रहे थे।
पुलिस ने ममता और पवन का बयान लिखकर खानापूर्ति कर दी थी। ममता ने आत्महत्या का कारण बीमारी और दफ़्तर से निलंबन ही बताया था। पुलिस के पास ममता की बात का अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था। आस पड़ोस के लोग सब जानते हुए भी ख़ामोश थे। कौन अपनी टाँग फंसाये, कौन दुश्मनी मोल ले जैसे विचार रखने वाले लोग चुपचाप रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
कांतिलाल और उसकी पत्नी भी आए। ममता और पवन के पास बैठकर रस्मी अफ़सोस करके आ गए लेकिन ममता को कुछ खटका हो गया था। अब यह क्या खटका था, वह साफ़-साफ़ समझ नहीं पाई थी।
मृतक के लिए हिंदू धर्म में परलोक की यात्रा सुगम करने के लिए जो विधान हैं वे सब पूरे हो गए तो सब अपने अपने संसार में व्यस्त हो गये। ममता ने ऊपर का पोर्शन किराए पर दे दिया था। सुनील का सारा सामान एक स्टोर-रूम में रखकर ताला लगा दिया था। अभी पुलिस की कारवाई पूरी नहीं हुई थी इसलिए किसी भी कागज़ की कभी भी जरूरत पड़ सकती थी।
सुनील को मरे एक महीना हो गया था। कांतिलाल सुनील का लिखा पत्र कई बार पढ़ चुका था लेकिन वादे के मुताबिक उसने न तो पत्र बाय हैंड पुलिस के हवाले किया था, न ही बाय पोस्ट भेजा था। उस पत्र का क्या करना था कांतिलाल को अच्छे से मालूम था।
एक दिन उसने पवन और ममता को मिलने कमला नेहरू पार्क में बुलाया। दोनों पति-पत्नी आनाकानी करते रहे, कांतिलाल ने ऐसी चीज़ के बारे में इशारा किया जो उनके लिए बड़े काम की थी लेकिन अगर वे नहीं देखना चाहते तो मजबूरन उसे वह चीज उसे भिवानी वाले भाई-भाभी को देनी पड़ सकती है। यह सुनकर वे दोनों उससे मिलने के लिए तैयार हो गए।
कांतिलाल ने उन्हें सुनील के सुसाइड- नोट की फोटो प्रति दिखाई तो दोनों के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई। कांतिलाल ने उनसे ओरिजिनल लेटर उन्हें देने के बदले पाँच लाख रुपये की माँग की। उन्होंने पैसे घटाने के लिए धमकी और मिन्नतों के सारे हरबे इस्तेमाल कर लिए, लेकिन कांतिलाल पुराना खिलाड़ी था, वह टस से मस नहीं हुआ। पाँच लाख रुपये गिनकर उसने ओरिजनल सुसाइड नोट उनके हवाले कर दिया।
सुनील की कहानी बस एक भूली दास्तान बनकर रह गई।
