साँझ की लाल रोशनी
साँझ की लाल रोशनी
जिस दिन रेमलदास ने जहर खाया उसी दिन माइकल जैक्सन की भी मौत हुई। रेमलदास के मृतक शरीर को लेकर जब शमशान के लिये रवाना हुए तो मुश्किल से दस आदमी थे। चार पाँच औरतें अपने घुटनों, कुल्हे और कमर दर्द से लाचार उनसे कोई आधा किलो मीटर पीछे घिसटती चली आ रही थी। छोटा सा कस्बा था। रेलवे लाइन से लेकर जी टी रोड़ के बीच जितनी एक जगह थी उसी में पांच हजार से थोड़ी ज्यादा आबादी बसी हुई थी। गलियां ज्यादातर कच्ची थी। पुराने मोहल्ले जो ऊंचे टीले पर थे वहाँ पर खड़ंजे और नालियाँ बीस साल पहले बनी थी अब लगभग जर्जर हालत में थी। रेलवे लाइन पार करके कोई दो किलोमीटर दूर शमशान था, उसी के बगल में कब्रिस्तान। कब्रिस्तान से सटा हुआ गुरुद्वारा। गुरुद्वारा को देखकर ही लगता था कि पहले यहाँ मस्जिद थी। गुरुद्वारा से सटा हुआ जोहड़नुमा तालाब था जिसे लोग सरोवर बोल देते थे। हालांकि वहाँ गंदगी और कीचड़ के सिवा कुछ न था। जोहड़ के किनारे एक विशाल बरगद था। जिसके नीचे चबूतरा बना हुआ था जो संस्कार में आये लोगों के बैठने के काम आता था।
चलते चलते पीछे रह गये दो लड़कों में से एक ने अपने कान में से लीड निकाल कर कहा, "माइकल जैक्सन भी मर गया।"
दूसरे ने भी लीड निकाल कर पूछा, "क्या कहा !"
पहले ने दोहराया, "माइकल जैक्सन मर गया।"
दूसरे ने अच्छा कहकर फिर से लीड कानों में लगा ली।
पीछे थोड़ी दूरी पर आते लंगड़े सुगनाराम ने जो अधबहरा भी था कहा, "कौन जैकिसन आठ नम्बर दुकान वाला। उसे क्या हुआ। कल तक तो भला चंगा था।" वह बहरेपन की वजह से इतनी तेज बोलता था कि उसकी बात सुनने के लिए लीड निकालने की जरूरत भी न थी।
उसकी बात सुनकर दोनों मुस्कराये, "जै किसन नहीं माइकल जैकसन ! अमरीकन सिंगर !" एक उसके कान के समीप जाकर बोला।
"माइकल जैक्सन ! थारा फूफा लागे था।" वह चिढ़ता हुआ सा बोला तो वे फिर मुस्कराये।
रेमलदास गले के कैंसर और सांस फूलने की बीमारी से विगत दो वर्ष से परेशान था। उसके बच्चे, तीनों लड़के दिल्ली में अच्छा खा कमा रहे थे लेकिन मां पिता से मुँह मोड़े रहते थे। गरीबी और बीमारी से तंग आकर रेमलदास ने जहर खा लिया। सुनकर जिस तरह से तीनों बेटे भागे भागे दिल्ली से आये वैसे ही भागे भागे दिल्ली लौट गए। सब के पास काम का बहाना था। रस्म पगड़ी पर चार बार फोन करने पर बड़े वाला लड़का टाइम टाइम के लिए आया। शाम को लौट गया। रेमलदास की शोकग्रस्त पत्नी जमना मायके वालों और मोहल्ले वालों से घिरी बैठी रही। पंद्रह दिन में मायके वाले भी तसल्ली के दो हाथ धर, सब्र कर ! सब्र कर ! कहकर लौट गए।जमना कहने को तो अड़तालीस बरस की थी लेकिन सारी उम्र मेहनत करने और कम खाने की वजह से उसका शरीर कसा हुआ था और चेहरे पर यौवन की आभा थी इसलिए उसे अकेले रहते डर लगता था। उसका घर भी शहर से बाहर था इसलिए उसकी कीमत भी कोई ज्यादा न थी। लड़के आकर उसे ले जाए इस बात की संभावना भी कम थी।
मकान भी उनके छोटे थे, दिल भी तंग थे फिर बीवियों का हुक्म भी न था। परेशान होकर जमना ने डेढ़ लाख में मकान बेच दिया और ऊंचाई पर स्थित मोहल्ले में एक कमरा किराए पर लेकर रहने लगी। बेटों को खबर हुई तो एक एक करके सब पैसा मांगने आ पहुंचे। किसी को बच्चे का एडमिशन करवाना था। किसी को कोई और काम ! जमना ने साफ़ इनकार कर दिया तो वे अपना सा मुँह लेकर लौट गए। उसकी बहन के दामाद ने भाग दौड़कर उसकी विधवा पेंशन बंधवा दी तो महीने के बारह सौ मिलने लगे। उसकी रोटी पानी का खर्चा इससे चल जाता। किराया तीन सौ रुपये था। इतना तो वह कमा लेती थी। कभी कभी ज्यादा भी बच जाता। बचे पैसे को वह बैंक में रखती ताकि जब वह मरे तो उसके क्रिया करम के लिए बच्चों को कष्ट न हो।
लेकिन बच्चे उसके जीते जी उस पैसे को चाहते थे। इसलिए बार बार आते। ममतामयी मां कभी कभी अपने बच्चों की जरूरतों और मज़बूरियों से द्रवित हो जाती, लेकिन पैसा न देती।
धीरे धीरे उन्होंने आना बंद कर दिया।
अब जमना का कोई रिश्तेदार न था। न मायके वाले न अपने बाल बच्चे। था तो केवल मोहल्ला ! छोटा शहर था सबके पास वक़्त ही वक़्त था। इसलिए जमना की भी देखरेख हो जाती थी लेकिन अकेलापन तो अकेलापन ही था। जीवन में कोई उद्देश्य न था। उद्देश्य हीन जीवन कब तक घसीटा जाएगा ! उसने सुना था कि अमरीका में अकेले रहते लोग बिल्ली पाल लेते हैं, कुत्ता पाल लेते हैं। उसने ऐसा सोचा भी लेकिन जीवन भर जो न किया हो वह बुढ़ापे में कर पाना और मुश्किल हो जाता है।
एक दिन एक कार वाली मैडम उसे ढूंढते हुए आई, "जमना चाची ! जमना चाची !" बाहर कोई आवाज लगा रहा था। वह बाहर निकली। एक गोरी चिट्टी, लंबी ऊंची मैडम के साथ उसकी गली का राम मेहर खड़ा था। ऊंचे ऊंचे आवाज लगा रहा था। "क्या हुआ राम" जमना ने पूछा था।
मैडम ने साड़ी बड़े सलीके से बांधी थी। जमना ने देखा।
"नमस्कार जमना जी !" वह औरत मीठी आवाज में बोली।
"नमस्कार जी !आओ बैठो।"
वह मैडम निसंकोच एक पीढ़े पर बैठ गई।
"जमना जी ! हमने इधर एक संस्था खोली है। गरीब और बेसहारा महिलाओं की मदद के लिए। आप उस संस्था में सात आठ घंटे रह सके तो ?" उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से जमना को देखा और बोली, "हम आपको शुरुआत में दो हजार रुपये महीना देंगे।"
दो हजार काफी बड़ी रकम है उसके लिए।
"लेकिन काम क्या करना होगा।"
"वही साफ सफाई, देखभाल की निगरानी। दफ़्तर में कापी किताब पकड़ा देना। छोटा मोटा काम। बाहर कहीं नहीं जाना।" मैडम ने कहा तो जमना ने मंजूर कर लिया।
संस्था फिलहाल एक किराए के मकान में चल रही थी लेकिन एक एकड़ जमीन ले ली गई थी और भवन का निर्माण कार्य चालू था। मैडम का नाम विजेता चौधरी था और वह किसी फौजी अफसर की बीवी थी।
संस्था में काम कोई खास न था। सुबह खुलवा दो। साफ सफाई करवा दो। औरतें आती थी। पीस रेट पर सामान बनाती थी। यही सजावट का सामान, छोटी मोटी चीजें। फ़ाइल कवर ! पेपर वेट,पर्दे, चादरें। फिर वह बिकने चला जाता। एक तारीख को उसके बैंक एकाउंट में दो हजार आ जाते। जीवन को एक उद्देश्य मिल गया था।संस्था में सब उसको जमना जी कहते। उसे बड़ा अच्छा लगता।
संस्था में एक स्वीपर था। नाम था उसका मनसा राम बाल्मीकि ! वह उसे बड़ा मानता था। कभी जमना के पति ने मनसाराम के आड़े वक्त में उसकी बड़ी मदद करी थी। इस वजह से उठते बैठते उसके और उसके पति के गुण गाता। बच्चे कैसे निकले थे कि मां को पूछते ही न थे लेकिन बच्चों की बुराई करने पर जब जमना ने नाराजगी जताई तो उसने बच्चों की बुराई करना बंद कर दिया।
संस्था में नया चपड़ासी कम गनमैन कम ड्राइवर आया। उझाराम ! पहाड़ी राजपूत ! मैडम के पति के साथ फौज में था। पाँच साल पहले रिटायर आया था। रिटायरमेंट के बाद अपने गाँव रहने गया था। पत्नी गुजर चुकी थी। बच्चों से बनती नहीं थी। बच्चे पैसा मांगते। वह न देता। रोज रोज झगड़ा होता। इस झगड़े से आजिज आकर वह साहब के पास गया। साहब ने उसे आठ हजार रुपये महीना पर संस्था और मैडम का पूर्णकालिक सेवक बना लिया। वहीं रहता, खाता पीता, गाड़ी चमकाता। उसके आने के बाद जमना के पास कोई खास काम न बचा। वह लगभग फ्री हो गई। कोई काम के हाथ लगाती तो उझाराम दौड़ कर आता, "अरे जमना जी ! आप बैठिए,हम किसलिए हैं।"
जमना से हर दुःख सुख की कहता। अपनी पत्नी के साथ बिताए सुखमय दिनों की याद में उसकी आँखों में आँसू आ जाते। बच्चों की नालायकी और नाफरमानी का जिक्र करता तो उसकी आंखें और वाणी खून उगलने लगती। ऐसे वक़्त में जमना को उसे समझाना और शांत करना मुश्किल हो जाता।
कहते हैं न आँच के पास रखा रहने पर मोम पिघलता है। यह उसका स्वभाव ही है। फौजी उझाराम को जमना जी में अपनी पत्नी की झलक दिखती थी। खास कर दो पेग लगाने के बाद। ऐसा विचार आने के बाद वह अपने गालों पर दो थप्पड़ लगाता और खुद को ही गाली देता, "कमीन !नीच !नाली का कीड़ा!" और पट से जमीन पर थूक देता।
लेकिन उसने देखा। जमना जी उसके आने के बाद से सलीके से साड़ी बांधने लगी हैं। चेहरा भी ज्यादा चिकना और चमकदार लगने लगा है। चप्पलें भी नई खरीदी गई हैं।
एक दिन जमना जी बोली, "उझाराम जी ! आपके आने से मुझे बड़ा अच्छा लगने लगा है।"
इस सामान्य सी बात के उझाराम ने हजार मतलब निकाले लेकिन कोई भी मतलब उसे उसकी बात को न समझा सका।
औरत के दिल को वह पढ़ना जानता न था। उसकी नौकरी लगने के बाद शादी हो गई थी। पत्नी तमाम उम्र गांव में रही लेकिन जरूरत रहते हुए भी वह कभी किसी बाजारू औरत के पास न गया। इसलिए उसे औरत के मन की भाषा पढ़ना न आया।
एक दिन मनसा राम बाल्मीकि को उझाराम ने कैंटीन की रम की बोतल ला कर दी। मनसा राम कई दिन से उससे इसरार कर रहा था। उझाराम टालमटोल कर रहा था।उसने मनसाराम को एकांत में जाकर कहा कि तू मेरा एक काम कर दे तो मैं तुझे कैंटीन की रम की बोतल ला कर दूंगा और पैसा भी नहीं लूंगा।
मनसा राम ने हामी भर ली। उझाराम ने उसे काम बताया तो मनसा राम हंसते हुए बोला, "यह काम तो मैं बिना दारू के भी कर देता। यह तो धर्म का काम है।"
उझाराम को कुछ आस बंधी लेकिन डर भी लगा कि मनसाराम ने कुछ गड़बड़ कर दी तो उसको शर्मिंदगी न उठानी पड़े। लेकिन अब क्या किया जा सकता था।शायद कुछ हो सके। वह उद्विग्नता से मनसाराम को ढूंढने निकल पड़ा। छोटा सा शहर,मनसाराम को हर शख्स जानता था लेकिन मनसाराम कहीं नहीं मिला। जब उझाराम वापिस लौट रहा था साँझ ढल रही थी, पीछे सूरज दूर पहाड़ियों के पीछे छुप रहा था। साँझ की लाल रोशनी में सब कुछ लाल लाल दिख रहा था। सामने से जमना पैदल आती दिखाई दी। उसकी क्रीम रंग की साड़ी और धूसर रंग का ब्लाउज सब सब लाल लाल से दिख रहे थे। उसका गोरा चेहरा भी लाल हो रहा था।जमना उसे देख कर रुक गयी थी। दूर तक कोई नहीं था। कहीं से चरवाहे की टेर आ रही थी। कहीं दूर खेत में से ट्रेक्टर चलने की आवाज आ रही थी। इसके अलावा सब शान्त था।
"आपने मनसा राम को कहीं देखा ?" उझाराम ने उसे रुकते हुए देखकर पूछा।
"क्यों ! क्या काम है। आपका काम तो उसने कर दिया।" उझाराम ने नजरें झुका ली। वह उसकी नजरों की ताब न ला सका।
वह खड़ी खड़ी उसे देख रही थी। उझाराम ने परे देखते हुए पूछा, "क्या कह रहा था ?"
"इधर देखिए, मेरी तरफ ! जो उसको कहने को कहा था आप खुद कहिए। वह भी मेरी नजरों से नजरें मिला कर।"
यह सुनकर उझाराम ने बड़ी मुश्किल से उसकी तरफ देखा।
जमना मुस्करा रही थी।
उझाराम हँसने लगा।
"और हाँ ! मनसा राम को मैंने भेजा है गुरुद्वारा साहिब। भाई जी को यह बताने के लिए कि कल सुबह हम शादी करेंगे।"
