सरदार जी की समस्या
सरदार जी की समस्या
उस नब्बे साल के सरदार जी की समस्या क्या थी?
उसे बहुत सारी बीमारियां थी।किडनियां उसकी कमज़ोर थी।फेफड़ों में पानी भर जाता था।बग़ैर लाठी के तो वह खड़ा भी नहीं हो सकता था।लाठी के साथ भी खड़ा होने में उसका दम फूल जाता था।हफ़्ते-दस दिन में उसका पेट साफ़ होता था।लेकिन ये उसकी बीमारियाँ थी,समस्याएँ नहीं थी।नब्बे साल के बूढ़े के लिए ये उसके जीवन का अंग बन गई थीं।वह कहता रहा कि वह आत्मसम्मान से जीना चाहता है लेकिन उसके बच्चे उसे कोने में धकेल रहे हैं।यह बात उसे बर्दाश्त नहीं थी।जो मकान उसने अपने हाथों से बनाया था।जिसकी हर मंजिल पर तीन बेडरूम थे,उस मकान की चौथी मंजिल पर उसे रहने के लिए एक सादा सा छोटा कमरा दिया गया था।क्या अपने बनाये मकान में उसका इतना हक़ नहीं था कि वह ग्राउंड फ्लोर पर एक अदद बैडरूम हासिल कर सके।लेकिन उसकी बात कोई सुनता नहीं था।सब उसे ही चुप रहने को कहते थे।उसकी बेटी जो सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल के ओहदे पर थी भाई-भाभियों से बना कर रखने के लिए इतनी फ़िक्रमंद रहती थी कि पिता की बात को सुनकर भी अनसुना करती थी।
अस्पताल में सरदार जी की अटेंडेंट बनकर उनकी पोती आई थी।पोती हरभेंट कौर दिल्ली यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान भी पढ़ रही थी। उसे कॉलेज भी जाना होता था इसलिए बारी-बारी से घर के लोग ड्यूटी दे रहे थे।लेकिन न बेटों के पास ही इतना अवकाश था कि वे लंबी ड्यूटी दे सकें न बहुओं की ही इच्छा थी कि वे ससुर की तीमारदारी करें।क्योंकि सरदार राजेन्द्र सिंह ने तो उन्हें गालियाँ ही देनी थी।घर में तो वे उन गालियों के बदले चुप्पी तान लेती थी लेकिन अस्पताल में जाकर कौन जुलूस निकलवाये!
पोती हरभेंट जिसे हर कोई प्यार से लाडी कहता था दस पोते-पोतियों में सबसे बड़ी थी दादा की भी लाडली थी।उसे दादा की सबसे ज्यादा फिक्र थी,लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह दादा से सलीके या तमीज़ से पेश आती थी बल्कि वह दादा से सबसे ज्यादा बदजुबानी करती थी।बस फ़र्क इतना था कि बहुओं की छोटी से छोटी बात पर तुनक जाने वाला सरदार राजेन्द्र सिंह रिटायर्ड सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस पोती की हर बदतमीजी हँस कर सहन करता था।
सरदार राजेंद्र सिंह को इस अस्पताल में आए पांच दिन हो गए थे जिनमें से चार दिन उन्होंने आई सी यू में बिताए थे।पांचवें दिन उन्हें इस सेमी- प्राइवेट रूम में शिफ़्ट कर दिया गया था।
पोती लाडी सुबह से यहीं थी और दादा-पोती में जमकर बहस हो रही थी।पोती समेत घर के सभी लोग उन्हें डैडी कहती थे।
"डैडी, आप क्या बात करते हो।वे मेरे पापा हैं।वे आपसे बहुत प्यार करते हैं।"
"प्यार?प्यार तो कभी उसने अपने बचपन में भी नहीं किया नरेंद्र ने!होस्टल में रहकर पढ़ता था!तभी याद करता था जब पैसे ख़त्म हो जाते थे,'डैडी',मनीऑर्डर भेज दो!'यही कहने के लिए फोन करता था।"
"इतने भी बुरे नहीं हैं मेरे पापा!हाँ, थोड़ा चुपचाप रहते हैं।अगर वो चुपचाप नहीं रहते तो जैसा आपका स्वभाव है और जैसे मम्मी जी चिढ़ते हैं आपसे,घर ने कब का बिखर जाना था।मम्मी जी ने तो कई बार कहा है,लाडी के पापा,हमें किराए का घर ले दो चाहे छोटा हो।इतनी टोका-टाकी के बीच में नहीं रहा जाता।लेकिन पापा जी हमेशा मना कर देते हैं।"
"अच्छा?यह नई बात सुन रहा हूँ।"
"आप सुनते ही कब हैं।अपनी-अपनी कहते हैं।यही तो आपकी समस्या है।"
"कह भी देता हूँ जब भी कौन सुनता है!कौन मानता है!"
"सब सुनते हैं।सब मानते हैं,डैडी!"
"तू ही कहाँ मानती है?"
"मेरी छोड़ो!मैं तो आप पर गई हूँ।मम्मी कहते तो हैं सेम टु सेम दादा है यह तो(हँसने लगती है।)
"पोती तो दादा पर ही जायेगी और नाना पर ही जायेगी।मिन मिन कर सिमरण करता है और मीट की कटोरी चट कर जाता है,तरी भी नहीं छोड़ता।"सरदार जी का स्वर तानाकशी वाला और उपहास उड़ाने वाला हो गया था।
उपहास मर्म पर लगा था।पोती तुनक गई थी
"आप तो चुप ही करो!आपसे तो बात करना फ़िज़ूल है।मैं ही पागल हूँ जो डैडी-डैडी करके आपसे चिपकी रहती हूँ।"
दादा फीकी हँसी हँसा था।पोती उठकर चली गई थी।वह पुकारता ही रह गया "लाडी, सुन तो!सुन तो!लाडी! लाडी!!"
लेकिन पोती अनसुना करके लिफ़्ट के दरवाज़े पर खड़ी थी।बहुत देर तक लिफ़्ट नहीं आई तो वह खट खट सीढियां उतर गई।बाहर जाकर एक चिकन सैंडविच खाया,एक कॉफ़ी पी और लिफ़्ट से चढ़कर वापिस आ गई।
दादा के कमरे में झांककर देखा।दादा सो गए थे।वह पास में पड़ी बेंच पर बैठ गई।ठंड आज कुछ ज़्यादा ही थी।उसने कंबल अपने पाँवों पर डाल लिया और सेलफोन पर पब्जी खेलने लगी।यह एप्पल का फोन उसे दादा जी ने ही दिलवाया था और बाहर पार्किंग में खड़ी गाड़ी वैगन-आर सी एन जी फिटेड भी दादा जी ने ही दिलवाई थी।उसके पापा अभी ही दादा जी की एट हंड्रेड ही चला रहे थे।उसका कितना मन था प्लस टू के बाद फाइव ईयरस इनटेग्रेटेड लॉ करने का!उसका पूना में एडमिशन भी हो गया था।लेकिन दादा जी ने कहा था कि लाडी पीछे से तेरा दादा मर जायेगा।उसकी लाहम लेने वाला कोई न रहेगा।वह सच्चाई जानते हुए भी अड़ी रही थी।लेकिन दादा जी ने जब नई गाड़ी लेकर देने की पेशकश की थी तब वह मान गई थी।लॉ तो वह ग्रेजुएशन के बाद भी कर सकती है।गाड़ी क्या जाने कब मिलती।
अब वह गाड़ी पर कॉलेज जाती थी।तीन लड़कियों को अपने साथ ले जाती थी।गाड़ी ने उसे नई तरह की आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास दिया था जो उसके दादा जी की बदौलत था।लेकिन वह अपने पापा से भी बहुत प्यार करती थी।उसके सदा खामोश रहने वाले पापा दादा जी की झिड़कियां भी सुनते थे और मम्मी जी की नाराजगी भी बरदाश्त करते थे लेकिन कहते कुछ नहीं थे।भिवाड़ी की अपनी फैक्ट्री जिसमें वे जनरल मैनेजर थे से देर रात अपनी एट हंड्रेड कार में पहुंचते थे।आकर सो जाते थे।न किसी से बातचीत, न कोई मशविरा।कभी वह जागती मिल जाती तो उसके सिर पर स्नेह का हाथ रख देते थे।उसने अपनी दादी को देखा तो नहीं था लेकिन बुआ बताती थी कि माँ उनकी यानि लाडी की दादी ऐसी ही थी।बुआ से याद आया कि सुबह आने के लिए वह बुआ को ही कह दे क्योंकि कल उसका कॉलेज है।
वह बुआ को फोन करती इससे पहले ही जीजा जी का फोन आ गया।बुआ के दामाद को वह जीजा ही कहती थी।बुआ की बेटी उनके पड़ोस में ही ब्याही थी।रोज का मिलना-जुलना था।
"हाँ लाडी!मैं ऑटो-रिक्शा से आ रहा हूँ।मुझे आधा घंटा लगेगा,तुम चाहो तो निकल जाओ।"
"नहीं जीजा जी!आप आ जाओ,तभी जाऊँगी।डैडी को अकेला नहीं छोड़ सकते।"
"ठीक है।आता हूँ!"
जीजा के आने के बाद लाडी निकली।अंधेरा होने लगा था।मम्मी जी ने अंधेरा होने से पहले लौट आने को कहा था।मम्मी जी उसको बच्ची ही समझती हैं।वह अठारह की हो गई है,उसका ड्राइविंग लाइसेंस भी बन गया है।कभी गाड़ी हल्की सी टच भी नहीं हुई किसी से चलाते हुए।फ़िर भी मम्मी जी डरती हैं।मम्मी जी का बस चलता तो उसे गाड़ी कभी न लेने देती।उसे मेट्रो में ही कॉलेज जाना पड़ता।मेट्रो और ऑटो-रिक्शा का रोज का एक सौ पचास भाड़ा लगता।इतने की ही सी एन जी लगती है और चार लड़कियां आराम से कॉलेज आ-जा सकती हैं।
उधर अस्पताल में सरदार जी जाग गए थे।उन्हें पानी की प्यास लगी थी।बेटी का दामाद सामने बैठा था।लेकिन उन्होंने उसे पहचाना नहीं।उनकी निगाहें पोती को ढूंढ रही थी।पोती तो दिखी नहीं।एक नर्स आई, ब्लड प्रेशर और टेम्प्रेचर लेने।
"दादा जी!उठिए यह थर्मामीटर बग़ल में रखिये!"वह बोली तो उन्होंने चुपचाप निर्देश का पालन किया।दामाद निकट आया तो उन्होंने पहचाना।
"दादा जी,मैं गुलशन!गुरजीत का घरवाला!!"
उसने झुककर पैर छूने का अभिनय किया।
बूढ़े सरदार जी ने उसका सिर पुचकारा और पूछा,"लाडी गई?"
"हाँजी,गई।रात में मैं आपके पास रुकूंगा।"
सरदार राजेंद्र सिंह को यह आदमी कभी पसंद नहीं आया था।लेकिन बेटी का दामाद था इसलिए कुछ कहना मुनासिब नहीं लगता था।
"और कामकाज के क्या हाल हैं?ठीक चल रहा है कारोबार!"
"हाँ जी!बाबाजी की मेहर है।"
"बाबा जी की मेहर तो सब पर है।मैंने कारोबार का पूछा है।"
"जी,चल ही रही है दाल-रोटी,गुरु महाराज की किरपा से!"
सरदार राजेन्द्र सिंह ने पुलिस की नौकरी की थी।बंदे ही चराये थे कोई भेड़ें नहीं चराई थी।उन्हें ख़बर थी कि गुलशन की कोई कमाई नहीं थी।सिर्फ़ कर्ज़ ही कर्ज़ है। दोहती दीक्षा बड़ी मुसीबत में दिन काट रही थी।लेकिन गलती उसकी ही थी।उसकी माँ ने उसे कॉलेज में पढ़ने के लिए भेजा था।पढ़ने की बजाय वह गुलशन से दिल लगा बैठी थी।उसने अपनी प्रिंसिपल माँ को इतना मजबूर कर दिया था उसे उसकी शादी गुलशन से करनी पड़ी थी।गुलशन बातें ही हवाई करता था।अंदर से खोखला था।दीक्षा जितना घर बनाने की कोशिश कर रही थी,उतना ही गुलशन घर बिगाड़ रहा था।दीक्षा की माँ यानि उनकी बेटी हरगीत जिसे घर में भोली कहते थे,
इस कारण से बहुत परेशान रहती थी।लेकिन यह उनके घर का मामला था नब्बे साल के बुजुर्ग सरदार राजेंद्र सिंह जो बीमार भी थे,इसमें कुछ नहीं कर सकते थे।
ठंड ज़्यादा थी या उन्हें ही लग रही थी।वह नर्स को अतिरिक्त कंबल लाने की दो बार कह चुके थे लेकिन कंबल अभी तक आया नहीं था।उस दक्षिण-भारतीय नर्स को या तो उनकी बात समझ नहीं आई थी या वह लापरवाह थी।गुलशन जब से आया था इधर-उधर घूम रहा था।कभी उसका फोन आ जाता कभी वह कुछ खाने चला जाता।आखिरकार कंबल आ गया।उन्होंने कंबल लपेट कर डाल लिया था।कुछ हरारत महसूस हुई।लेकिन कंपकंपी रुक ही नहीं रही थी।सामने से कोई जा रहा था।सरदार जी ने ज़ोर से आवाज़ लगाई,"हेलो!"उन्होंने अपनी आवाज़ में कंपन साफ़ महसूस की।एक सिक्योरिटी गार्ड अंदर आया।
"हाँ जी,बाबाजी!"
"आई एम शिवरिंग!मैं ठंड से काँप रहा हूँ।"
"जी,बताएँ!मैं किसको बुलाऊँ!"
"कोई भी डॉक्टर, नर्स जो मेरी ठंड का इलाज करे।"
"जी,देखता हूँ।कौन ड्यूटी पर है।"
"जरा जल्दी करो।"
"हाँ जी"कहकर गार्ड चला गया।पंद्रह-बीस मिनट तक कोई न आया।कंपकंपी रुक ही नहीं रही थी।गुलशन का भी कोई पता नहीं था।सरदार जी ने सोचा,मैं ख़ुद ही देखता हूँ।उठने लगे,पैर जमीन पर रखे।चप्पल नहीं मिली।फ़र्श बहुत ही ठंडा था।कैसा अस्पताल है यह।चार हज़ार रुपये प्रतिदिन का रूम और फैसिलिटी का यह हाल।पेशेंट मरता है तो मर जाए।किसी को परवाह ही नहीं।
बेड के सहारे अभी खड़े ही हुए थे कि गुलशन आ गया।"अरे अरे डैडी जी!बाथरूम जाना है क्या?"
"हाँ!"उनके मुँह से निकला।गुलशन उन्हें सहारा देकर बाथरूम ले जाने लगा।
तभी रात की पाली का मेल नर्स ड्यूटी संभालने दिन वाली नर्स के साथ आया।दोनों हँसते हुए एक दूसरे से चुहल करते हुए सरदार जी के मेडिकल रिकॉर्ड को पूरा करने लगे।
सरदार जी बाथरूम से निकले।गुलशन फिर से ग़ायब था।
वह बेड पर लेट गए।कंपकंपी अभी भी हो रही थी।मेल नर्स ने उन्हें दवाई खाने को दी।
"आज बड़ी ही ठंड है।मेरी तो कंपकंपी ही न रुक रही।"सरदार जी ने कहा लेकिन मेल नर्स ने उनकी बात का कोई नोटिस लिया हो ऐसा दिखाई न दिया।
"रूम का टेम्परेचर बढ़ा दो!"सरदार जी ने कहा।
"बाबा जी,रूम में हीटिंग नहीं है।"
"कोई रूम हीटर ही रख दो!"
"देखता हूँ।"कहकर नर्स चला गया।लौट कर न आया।
गुलशन आ गया था लेकिन उसे फोन से फुरसत न थी।
"दरवाजा बंद कर दो,गुलशन!मुझे कंपकंपी हो रही है।"
गुलशन ने दरवाजा बंद कर दिया।ठंड कुछ कम हो गई।
गुलशन अटेंडेंट के बेड पर कंबल ओढ़कर सो गया था।कमरे में उसके खर्राटों की आवाज गूँज रही थी।
सरदार जी अभी भी ठंड से काँप रहे थे।उन्हें थोड़ा बुखार भी लग रहा था।रात की पाली का डॉक्टर आया। सरदार जी ने उससे शिकायत की ,"मेरी कोई सुन नहीं रहा है।"
"बाबाजी! बोलिये मैं, सुनता हूँ।"
"मुझे ठंड लग रही है।दो कंबल डाले,इनसे भी नहीं रुक रही।एक हीटर मांगा था।नर्स बोलकर गया कि देखता हूँ।अभी तक लौटकर नहीं आया।इस दिस द वे टू ट्रीट एट्टी नाइन ईयर ओल्ड मैन।ऑय एम रिटायर्ड सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस।पाँच दिन आई सी यू में रहकर आया हूँ।इज़ दिस इजी टास्क टू बेयर थिस?"
"मैं देखता हूँ।"डॉक्टर ने दरवाज़े पर जाकर आवाज़ दी।टेबल पर ऊंघता आदमी तुरंत आया।
"आर यू ऑन ड्यूटी हेयर?"
"थिस ओल्ड मैन इज़ शिवरिंग विथ कोल्ड!व्हाट र यू डूइंग!"
"सर!दो कंबल आलरेडी इनके पास हैं।ये हीटर माँग रहे थे,वो अवेलेबल नहीं है।"
"आप स्टोर्स से भी मंगा सकते थे।एक और कंबल भी दे सकते थे।मुझे भी इन्फॉर्म कर सकते थे।"
नर्स चुपचाप खड़ा सुन रहा था।
डॉक्टर उसे छोडकर काउंटर पर लगे फोन से फ़टाफ़ट निर्देश देने लगा।एक एक्स्ट्रा कंबल आ गया था।रूम हीटर लगा दिया गया था।फीवर के लिए डोलो टेबलेट दे दी गई थी।दरवाजा बंद कर दिया गया था।
"बाबा जी,आपके पीछे एमरजेंसी बेल है।मेरे केबिन में बजेगी।कोई दिक्कत हो तो बजा देना!"
"बहुत बहुत धन्यवाद बेटा!अब मैं ठीक हूँ।"
गुलशन इस पूरे एपिसोड के दौरान सोता रहा।उसकी नींद न टूटी।
सरदार जी शांति से सोते रहे।उनकी नींद सुबह ही खुली।
रात वाला नर्स आया।सुबह वाली दवाई खिलाई।दवाई खाने के बाद सरदार जी ने मुँह हाथ धोने के लिए गरम पानी की माँग की।
नर्स चिलमची में गर्म पानी लेकर आया।सरदार ने जी ने मुँह हाथ धो लिये थे।गुलशन चला गया था।
उनकी बेटी हरगीत आ गई थी।हरगीत जिसे वे प्यार से भोली कहते थे,सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल थी।इस साल रिटायर होने वाली थी।गुरु महाराज ने उन्हें लंबी जिंदगी बख्शी थी जिसमें वे न केवल अपनी एक दोहती की शादी देख पाए थे बल्कि बेटी की रिटायरमेंट देख पाने की भी उम्मीद थी।लेकिन दाता ने उन्हें लंबी जिंदगी के साथ स्वस्थ शरीर भी दिया होता तो वे इतने कष्ट भोगकर जीवन न काटते।पैंसठ साल की उम्र में उनका कूल्हा टूट गया था।तब से वे छड़ी के सहारे थोड़ा बहुत चल लेते थे।लेकिन सीढ़ियां बगैर किसी सहारे के नहीं उतर सकते थे।चौमंज़िले से नीचे आना उनकी क्षमता के बाहर था।उनके बच्चे उन्हें उनके हाथों से बनाये मकान में नीचे का कमरा नहीं देते थे।इसलिए वे स्थायी रूप से गुस्सैल और चिड़चिड़े हो गए थे।आज उन्होंने सोच रखा था कि वे बेटी हरगीत से इस बारे में जरूर बात करेंगे।
सूप आ गया था।उन्होंने हरगीत से कहा,"भोली,सूप पी लो"
"नहीं डैडी,मैंने थोड़ी देर पहले ही चाय पी है।"
"और सब ठीक हैं?गुरसाहिब,अन्विता और हमारे दामाद जी?"
"हाँ, डैडी!सब ठीक हैं।"
"बड़ी चुपचाप सी हो?क्या बात हो गई?कोई समस्या है?"
"समस्या आप हो डैडी!आप सबसे झगड़ा करके घर का माहौल ख़राब रखते हो।सुनना मुझे पड़ता है।"
"मैं घर का माहौल खराब रखता हूँ।मैं, जिसे चौबारे पर बाँध दिया गया है।मैं एट्टी नाइन इयर्स ओल्ड सरदार राजेन्द्र सिंह रिटायर्ड सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस!जिसे अपने बनाये घर मे ग्राउंड फ्लोर पर एक कमरा नहीं दिया जा रहा ताकि मैं हमउम्र लोगों के साथ उठ-बैठ न सकूँ?मैं घर का माहौल ख़राब करता हूँ?"
"मोहल्ले के बूढ़ों से मिलकर आपने करना क्या है!अपने बच्चों की बुराईयां! बात-बात पर नुक्ताचीनी!"
"मैं कोई बुराई नहीं करता।कोई बात निकल आती है तो कह देता हूँ।अगर उनको अपनी बुराई से इतनी तकलीफ़ होती है तो अपना किरदार क्यों नहीं दुरुस्त करते।"बोलते-बोलते सरदार जी को गुस्सा चढ़ गया था।गुस्से के आधिक्य की वजह से या शारीरिक कमजोरी की वजह से उन्हें जोरों की खाँसी आ गई थी।
हरगीत उन्हें खाँसते हुए चुपचाप देखती रही।
खाँसने की वजह से गले में कफ़ चढ़ आया था।उन्हें बाथरूम में जाकर कफ़ थूककर आना पड़ा।
हरगीत की त्योरियाँ अभी भी चढ़ी हुई थी।
उन्होंने उसके सफ़ेद होते बालों को देखा।गालों में और आँखों के किनारे पर पड़ती झुर्रियों को देखा।उन्हें याद आए वे दिन जब उन्होंने हरगीत की शादी की थी।कितनी सुंदर और स्वस्थ थी हरगीत!बुद्धिमान तो शुरू से ही थी।बी एस सी बी एड करके साइंस टीचर लग गई थी। बिजली बोर्ड में जे ई मंजीत का रिश्ता सामने से आया था।उन्हें जीवन भर अपनी बेटी पर गर्व रहा है।अब यह बेटी भाईयों से बिगाड़ के डर से इंसाफ की बात नहीं कहती है।शायद सोचती है कि पिता ने एक दो साल में मर जाना है।इनके लिए भाई-भाभियों से क्यों बिगाड़ करे!
"आप चाहते क्या हो डैडी जी!आप चाहते हो कि पूरा घर बिखर जाए।भाई-भाभी किराए के मकान में चले जायें।फिर आप इतने बड़े मकान में अकेले रह लोगे?"हरगीत कह रही थी।
"कोई न जा रहा किराए के मकान में!पता है फरीदाबाद में किराए कितने चल रहे हैं।जितनी जगह में वे रह रहे हैं बीस हज़ार में भी न मिले।सब गीदड़-भभकी है।सोचते डैडी अकेले रहने के नाम से डर जायेंगे और वे अपनी मर्ज़ी चलाते रहेंगे।"राजेंद्र सिंह का जवाब था।
हरगीत अपनी कोई पेश न चलती देख गुस्से से उठकर चली गई थी।सरदार राजेंद्र सिंह चुपचाप बिस्तर पर बैठे थे।उनका हड्डियों का ढाँचा बना कृशकाय शरीर ऐसा लग रहा था मानों कोई बच्चा बैठा हो।कौन मान सकता है कि सरदार राजेंद्र सिंह कभी छह फुट एक इंच लंबे और कसरती बदन के मालिक थे।हरियाणा पुलिस की वर्दी पहनकर ठप्पी हुई दाढ़ी और करीने से बांधी हुई पगड़ी माथे पर सजाकर जब वे सरकारी जीप में बैठते थे उनकी शान देखते ही बनती थी।लेकिन यह नामुराद बुढापा जो न दिखा दे वह कम है।
हरगीत लौट आई थी लेकिन चुपचाप बैठी थी।सरदार जी बहुत देर तक उसके चेहरे की तरफ देखते रहे।कोई प्रतिक्रिया न पाकर बिस्तर पर लेट गए।
नाश्ता आ गया था।उपमा,कॉर्नफ्लेक्स और पोहा!उन्होंने चुपचाप नाश्ता किया।एक दो बार हरगीत से नाश्ते का पूछा,हरगीत ने मना कर दिया।नाश्ता करके एक चाय बना कर पी।
"तुम मेरी देखभाल करने आई हो या झगड़ने आई हो?"सरदार जी ने फिर से बात शुरू की।
"आपसे कौन झगड़ा लगा सकता है डैडी!आपसे जो झगड़ा करे वह बेवकूफ़!तुम सब लोगों ने एक हो जाना है मुझे फ़ीके गन्ने चुसवाने हैं।"
"तुम क्यों फ़ीके गन्ने चूसोगी।तुम तो हमेशा भाई-भाभी से बना कर रखने की बात करती हो।कभी डैडी की फ़ेवर में बोली हो?बोलो?
तुमने कभी कहा कि मैं डैडी को ले जाऊँगी।यू डिडन्ट से दिस!"
"मैं क्यों कहूंगी,डैडी!जो बात मैं पूरी नहीं कर सकती,वह क्यों कहूँगी।मुझे ऐसी बात कहने से पहले मंजीत,गुरसाहिब और अन्विता से पूछना होगा।इससे बेहतर उपाय मेरे पास है यदि आप मानो तो?"
"क्या?"
"आप ओल्ड एज होम में चले जाओ।वहाँ आपके हमउम्र लोग भी होंगे।आपकी बेहतर देखभाल भी होगी।"
"उसमें तुम्हारे भाई-भाभियों की बदनामी नहीं होगी?समाज और आसपास के लोग कुछ न कहेंगे कि तीन बेटों के होते हूए सरदार जी ओल्ड एज होम में क्यों रहते हैं।"
"आजकल यह आम बात है डैडी!बेहतर देखभाल के लिये और अपनी आज़ादी क़ायम रखने के लिये बुज़ुर्ग अपनी मर्जी से वहाँ रहते हैं।"
"तुम्हारी बात सुनकर बहुत निराशा हुई,भोली।"सरदार जी दुःखी होकर बोले,"इससे अच्छा तो मैं मर ही जाऊँ।"
"मरण-जीवन पर किसका बस है डैडी।मैं तो खुद चाहती हूँ कि रिटायर होने के बाद भगवान मुझे अपने पास बुला ले।क्या पता आपसे पहले भगवान मेरी सुन ले।"
"तुम कल की लड़की ऐसा सोचती हो।अभी तुमने जीवन मे देखा ही क्या है।मुझे देखो मैं हड्डियों का ढाँचा हुआ बैठा हूँ।दुनिया की कौनसी बीमारी है जो मुझे नहीं है।लेकिन फिर भी मैं जीना चाहता हूँ।"
"आपकी बात अलग है।आप मर्द हो।आपने जिंदगी भर अपनी चलाई है।लेकिन डैडी, आप सोचकर देखो,अगर आपकी जगह हमारी माँ जीवित रहती तो उसकी कितनी मिट्टी ख़राब होती।'
"यह बात तो सही है।वह काम भी करती और गालियां भी खाती।"
"आप तो बोल कर गुस्सा निकल लेते हो।माँ तो बोलना भी नहीं जानती थी।"
"अच्छा हुआ तुम्हारी माँ चली गई।लेकिन अगर मेरे साथ जीवित रहती तो हम लोग अलग रह लेते कहीं।"
"ऐसा सोचना आसान है।क्या वह बेटे-पोतों का मोह छोड़ पाती!
नहीं न?"
सरदार जी ने कोई जवाब न दिया।
बेटी भी खामोश बैठी थी।सरदार जी के मन में और भी बहुत सी बातें थी जिन्हें वे कहना चाहते थे।इसलिए बातों का टूटा तार उन्होंने ही पकड़ा।
"मैं सन 1990 में रिटायर हुआ था जुलाई में",सरदार जी एक क्षण के लिये रुके,बेटी उनकी तरफ़ ही देख रही थी,"तुम्हारी माँ उसी साल नवंबर में ही चल बसी।तुम्हारी यह भाभी,अपने नरेंद्र की पत्नी क्या नाम है इसका?"
"राजविंदर"
"हाँ, जिसे मैं राज बेटा कहता था।इसके हाथ मे मैं सारी पेंशन की रकम रख देता था जैसे तुम्हारी माँ के हाथ में रखता है।फिर मैंने उससे नहीं पूछा कि वह रकम कहाँ खर्च करती है।लेकिन जब वह तुम्हें देने, तुम्हारे बच्चों के पैदा होने पर खर्च करने में आनाकानी करने लगी,मैंने पेंशन अपने पास रखनी शुरू की।तब से अब तक मैं डेढ़ करोड़ रुपये जमा कर चुका हूँ।आखिर वे किसके काम आयेंगे?इनके बच्चों के ही न। तुम मानो या न मानो राज के पेट में दर्द यही है।"
"हो सकता है।लेकिन आपको अपने लड़के की जिंदगी अजाब नहीं करनी चाहिए।"
"मैंने किसी की ज़िंदगी अजाब नहीं की।उल्टा मेरी दो वक्त की रोटी हराम हो रही है।जबकि मैं इन्हीं के बच्चों पर अपना पैसा खर्च करता रहता हूँ।"
"वो बच्चे उन्हीं के ही हैं।आपके कुछ नहीं लगते?"
"लगते हैं,तभी तो खर्च करता हूँ।लेकिन वे लोग इसका एहसान कब मानते हैं।"
"आपको एहसान मनवा कर क्या करना है।"
सरदार जी कोई कड़ी बात कहना चाहते थे।लेकिन इससे पहले ही कोई राउंड पर आया।
वह सफ़ेद कोट पहने एक लडकी थी।शायद अस्पताल की कोई कर्मचारी।
"नमस्ते बाबाजी।कैसी तबीयत है आपकी!रात में आप थोड़ा परेशान हुए उसके लिए माफी चाहती हूँ।नाश्ता कैसा लगा आपको?"
"रात में कोई परेशानी हुई थी,डैडी?आपने तो मुझे बताया नहीं।"
"तुमने मौका ही न दिया।आते ही भाई-भाभियों की साइड लेकर लड़ने लगी।"
"अच्छा,लड़ भी मैं रही हूँ।आप तो जैसे चुपचाप बैठे हैं।"
सफेद कोट पहने लड़की उनकी बहस को मुस्कराते हुए सुन रही थी।
"आप शायद इनकी बेटी हैं?"
"जी,आपने सही अंदाजा लगाया।'
"मेरा नाम रीता शर्मा है।मैं इस हॉस्पिटल में डायटीशियन हूँ।साथ में पेशेंट केअर भी संभालती हूँ।नाईट ड्यूटी के डॉक्टर ने रिपोर्ट किया कि बाबा जी को ठंड लग रही थी लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया।"
"अच्छा! गुलशन रात को यहीं था।सुबह मेरी उससे बात हुई।उसने तो ऐसी कोई बात नहीं बताई।"हरगीत हैरान हो रही थी।
"वह तो आराम से सो रहा था।"सरदार जी ने धीमे स्वर में कहा और खोखली हँसी हंसे।
"आप जगा लेते!दिन भर का थका होगा।आँख लग गई होगी।"
"यह भी मेरी ड्यूटी थी।"सरदार जी थोड़ा ऊँचे स्वर में बोले।
"यही तो आपकी दिक्कत है डैडी।आप समझते हैं कि बिना बताए आपकी परेशानी सबको पता चल जानी चाहिए।"
"जैसे बताने से ही सब समझ जाते हैं।"सरदार जी मुँह फेरते हूए बोले।
"कोई बात नहीं बाबा जी!आप बड़े हैं,बच्चों से गलतियाँ हो जाती हैं।बड़ों का काम है इन्हें नजर अंदाज़ कर दें।"
"डैडी तीस साल पहले पुलिस महकमे से रिटायर हूए थे।लेकिन अभी भी सबको अपना मातहत ही समझते हैं।"
सफेद कोट पहने लड़की जो हॉस्पिटल में डायटीशियन थी और जिसका नाम रीता शर्मा था,यह सुनकर हँस दी।
"बाबा जी,खाना कैसा लगा आपको।लंच में कुछ खास बनवाना हो तो मुझे आर्डर लिखवा दीजिए।मैं बनवा देती हूँ।"
सरदार जी ने न में सिर हिलाया।
रीता शर्मा चली गईं।
बेटी और पिता के बीच बातचीत फ़िलहाल बंद थी।वातावरण में तनाव बरकरार था।
तनाव जब ज़्यादा बोझिल हो गया तो बेटी उठकर बाहर गलियारे में टहलने लगी।
तभी उसके फोन की घंटी बजी।वह सरदार जी के सुनाई देने की क्षमता से यथासंभव दूरी बनाकर बात करने लगी।
बात काफ़ी देर होती रही।सरदार जी तकिए का सहारा लेकर लेट गए।उन्हें नींद आ गई तो ड्यूटी नर्स ने आकर उन्हीं कंबल ओढा दिया।
हरगीत की बात ख़त्म हो गई तो वह कमरे में लौटी।पिता को कंबल ओढ़े सोया देखकर वह उनके सफ़ेद दाढ़ी युक्त चेहरे और को निहारती रही।फिर कोट की जेबों में हाथ डालकर कुछ गुनगुनाती हुई गलियारे में टहलने लगी।जब थक गई तो वहीं बिछी एक बेंच पर बैठ गई।थोड़ी देर में बैठे बैठे ही सो गई।
लंच से कुछ पहले ही लाडी ने आकर आवाज़ दी,"बुआ!बुआ!"
हरगीत चौंक कर उठ बैठी।
"आप यहाँ क्यों सो रही हैं?अटेंडेंट बेंच पर सो जाती डैडी के पास!"
"बस यूँ ही जरा आँख लग गई थी।खाली बैठने की आदत नहीं हैं न।सारा जीवन काम करते-करते ही बीत गया।आज मौका मिला तो समझ नहीं आया क्या किया जाए।"बुआ मुस्करा रही थी और लाडी। सोच रही थी कि बुआ क्या छिपा रही है।
बुआ-भतीजी दोनों कमरे में आई।सरदार जी उठ बैठे थे।बेड की बैक से टेक लगाए फ़ोन पर किसी से बातें कर रहे थे।
उनकी बातचीत लंबी चली,इतने में लंच आ गया था।दही-खिचड़ी!सेवियों की खीर और रोटी सब्जी।खाना इतना ज्यादा था कि तीनों ने खाया फिर भी बच गया।
बुआ और भतीजी कुछ देर बैठी बातें करती रही।इसके बाद बुआ घर आने का वादा करके चली गई।सरदार जी लंच करके बैठे -बैठे ऊंघ रहे थे जब नर्स ने उनका बी पी लिया।एक इंजेक्शन लगाया।कुनकुने पानी के साथ तीन-चार रंग-बिरंगी गोलियां खिलाई,चार्ट पर कुछ नॉट किया और चली गई।
सरदार जी ने पोती से पूछा,"आज कॉलेज में क्या हुआ,लाडी!"
"कुछ नहीं!दो क्लास लगी।एक नहीं लगी।"लाडी बोरियत से बोली।
"डैडी, पता है पापा आपको शाम को लेने आयेंगे।आज आपको छुट्टी मिल रही है न!"
"आज?"
"क्यों,हॉस्पिटल में दिल लग गया क्या आपका?"
"नहीं,हॉस्पिटल क्या दिल लगाने की जगह है।लेकिन उस चौमंज़िले पर अकेले कमरे में रहने से दिल डरता है।उससे अच्छा तो यह हॉस्पिटल का कमरा ही है।कम से कम कोई देखने तो आ ही जाता है कि जिंदा है या मर गया!"सरदार जी निराशा और वितृष्णा से बोले।
"खुश हो जाओ!डैडी ,आपको हमारे फ्लोर पर कमरा मिल रहा है।आप मेरे बगल वाले कमरे में रहोगे।दीपू और नवजोत चौमंज़िले में रहेंगे।"
"और किचन?"
"किचन का क्या?"
"किचन का रास्ता उस कमरे से होकर जाता है।वह कमरा तो मैंने सर्वेंट के लिए बनवाया था।उसमें तो डिस्टर्बेंस रहेगी।"
"कोई न डिस्टर्बेंस होती।दीपू और नवजोत उसी कमरे में तो रहते हैं।"
"वो उस कमरे में रहते ही कितनी देर हैं।सारा दिन तो लॉबी में बैठे टी वी देखते हैं।सोने ही आते हैं उस कमरे में।"
"तो आप क्या सोचते हैं आपको मम्मी-पापा अपना बेडरूम दे दें।"
सरदार जी ने कोई जवाब न दिया।थोड़ी देर बाद सोचकर बोलें,
"किचन का दरवाजा दूसरी तरफ़ से भी तो निकल सकता है।"
"कैसी बात करते हैं आप डैडी!पांच लाख का वुडवर्क करवाया है किचन में।सारा खराब नहीं हो जाएगा।"
"जितना नुकसान होगा।मैं भर दूंगा।'
"आप ही करना अपने बेटे से बात!शाम को आ तो रहे हैं।"
"उससे क्या बात करना।वो कोई जवाब देता है कभी।उसे तो शुरू से फैसला सुनाने की आदत है।"
"अब मैं क्या करूँ।मैंने आपके लिए सबसे लड़ाई करी।तब जाकर इस कमरे की हाँ करवा पाई।"लाडी माथा पकड़ते हुए बोली ।
"तू परेशान मत हो।मैं कर लूँगा एडजस्ट!"
लाडी अभी भी दादा से परे देख रही थी।
शाम को बेटा पिता को लेने आया।लंबे- चौड़े बेटे के पीछे लाठी के सहारे चलते हुए पिता और उनके पीछे दादा का सामान संभाले पोती लिफ्ट में सवार होकर ग्राउंड फ्लोर पर चले गए।
