Gopesh Dubey

Drama

5.0  

Gopesh Dubey

Drama

भुने हुए चूहे

भुने हुए चूहे

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मैं अपनी कक्षा में बैठा था। शुक्ला जी और मुझमे गर्मागर्म बहस चल रही थी। विषय था 'शिक्षक का व्यवहार छात्रों के प्रति प्रेमपूर्वक और मित्रवत होना चाहिए।’


हम दोनों की पहली नियुक्ति आदिवासी क्षेत्र के परिषदीय प्राथमिक विद्यालय में एक साथ हुई थी। एक प्रधानाध्यापक वहाँ पहले से नियुक्त थे। शुक्ला जी उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात बहुत दिनों तक किसी अच्छे उच्च शिक्षण संस्थान में संविदा पर कार्यरत थे।इसलिए उन्हें छोटे - छोटे बच्चों से सामंजस्य बिठाने में थोड़ी कठिनाई आ रही थी। चूँकि वे शहरी क्षेत्र से थे और शुद्ध सात्विक ब्राह्मण थे। इसके कारण भी वे आदिवासी क्षेत्र के रहन - सहन और खान-पान को भी पसंद नहीं करते थे।


हमारे विद्यालय में अधिकांशतः आदिवासी बच्चे ही शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उन बच्चों के अभिभावक अक्सर मजदूरी आदि कार्यों में व्यस्त होने के कारण अक्सर अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते थे। स्कूल खुलने के समय वे बिना नहाये ही आ जाते या कोई बच्चे गड्ढे में मछली पकड़ते और हम लोगों को देखते ही "सर जी आ गये”, कह कर वैसे ही मिट्टी लगे शरीर से ही बस्ता लेकर विद्यालय आ धमकते। "अच्छी शिक्षा से ही इनमें अच्छे संस्कार डाले जा सकते हैं।" हमारे प्रधानाध्यापक जी अक्सर कहा करते थे। 

     

मैंने कहा, “छात्रों के आदर्श उनके अध्यापक होतें हैं। छात्रों की दृष्टि हमेशा अपने अध्यापक के क्रियाकलापों पर होती है और वे उसी का अनुसरण करते हैं। छात्र अपने अभिभावक के प्रति उतना आज्ञाकारी नहीं होते, जितना की वह अपने शिक्षक के प्रति आज्ञाकारी होते हैं। अतः उनके प्रति प्रेम और मित्रवत व्यवहार करके उनमें अप्रत्याशित सुधार या अच्छे संस्कार लाये जा सकते हैं।"


शुक्ला जी का कहना था, "छोटे बच्चों से मित्रवत व्यवहार करना उचित नहीं। छोटे बच्चों की दोस्ती, ढेले की सनसनाहट एक समान होती है। इनके सुधार के लिए इनके अभिभावकों को जागरूक करना होगा।" इतना कहकर शुक्ला जी अपनी कक्षा में चले गये।


मैं भी बच्चों को पढ़ाने में व्यस्त हो गया। मैंने पढ़ाते - पढ़ाते देखा कि गोलू और सोनू दोनों आपस में कुछ खुसर - पुसर कर रहे हैं। चूँकि मैं सारे बच्चों से प्रेमपूर्ण व्यवहार रखता था इसलिए वे मुझसे पूर्णरूपेण घुलमिल गए थे। फिर भी गोलू ने सोनू का मुँह पकड़ लिया।जिससे वह अपनी बात मुझसे ना कह सके।


मैंने थोड़ा डाँट कर उसका मुँह छुड़वाया और पुचकार कर सोनू से अपनी बात कहने के लिए प्रेरित किया। सोनू ने बताया, “सर जी आज दादू धान की पराली हटा रहे थे।तो उसमें से मोटे-मोटे चूहे निकले। जिन्हें गोलू ने पकड़ लिया है। वह कह रहा था कि इन्टरवल में चलो भून कर खाया जाय।"


मैं जानता था कि आदिवासियों में चूहे आदि खाना आम बात है। गोलू ने शरमाते हुए सिर को झुका लिया था। मुझे लगा कहीं इसमें हीनता की भावना ना आ जाए। इसलिए सोनू की बात को नजर अंदाज करके मैं बोला, “चूहों को खाली भून कर खाने में मजा नहीं आता। उसके साथ लहसुन, धनिया, मिर्ची और नमक की चटनी हो तो खाने का मजा दोगुना हो जाता है।"


मेरा इतना कहना था कि सारे बच्चे खिलखिलाकर हँस दिये। मैंने दृष्टि गोलू पर डाली, वह कातर दृष्टि से मेरी तरफ देखने लगा। मैंने अनुभव किया की उसकी आँखों में जैसे कोई चमक आ गई थी। उसका बालमन जैसे कुछ समझने का प्रयास कर रहा हो। मैं फिर बच्चों को पढ़ाने में व्यस्त हो गया।

   

इन्टरवल हो गया था। सारे बच्चे थाली लेकर मध्याह्न भोजन खाने निकल पड़े। मैं वहीं कक्षा में ही बैठ कर कुछ कागजी कार्यवाही पूरी करने लगा। शुक्ला जी भी आकर मेरे पास खाली पड़ी कुर्सी पर विराजमान हो गये और इधर-उधर की बातें करने लगे। करीब आधे घंटे बाद गोलू और सोनू दोनों हाथ मे प्लेट लिए जो की एक पेपर के टुकड़े से ढका था, लाकर मेज़ पर रख दिये। शुक्ला जी ने पेपर उठाते हुए पूछा, "इसमें क्या है रे गोलू?"


गोलू ने भोलेपन में जवाब दिया, "आप दोनों के लिए है सर जी, साथ में लहसुन, धनिया, मिर्ची और नमक की चटनी भी है।"


शुक्ला जी प्लेट को ध्यान से देख रहे थे। मैंने भी प्लेट की तरफ देखा। उसमे दो भुने हुए चूहे और हरी-हरी महकती चटनी रखी थी। मैं तो वह सब देख कर दंग रह गया। शुक्ला जी ने मेरी तरफ देखकर इशारे से पूँछा की क्या है? मैंने कहा, “भुने हुए चूहे।"


 शुक्ला जी अपना आपा खो चुके थे। वे लगभग चिल्लाने के लहजे में कह रहे थे, “यह सब क्या है राजेश बाबू ? मैं कहाँ इन लोगों के बीच आकर फँस गया ? मैं यहाँ कदम रखते ही अपने को कोश रहा था।इतना पढ़ लिखकर मैं बेकार हो गया। एक धर्म ही बचा था वह भी लगता है भ्रष्ट होकर ही रहेगा.!”


मैं अपनी हँसी सम्भाल नहीं पा रहा था और उन बच्चों के प्रेम से अभिभूत भी हो रहा था।और वे दोनों जैसे-तैसे प्लेट लेकर भाग खड़े हुए थे।


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