एक सौ का नोट
एक सौ का नोट
एतिहासिक कस्बा बिस्कोहर। इसी कस्बे से लगभग सटा हुआ मेरा गाँव फूलपुर राजा। बिस्कोहर से फूलपुर जाने के लिए एक विशाल बाग से होकर गुजरना पड़ता है। बाग में सप्ताह के प्रत्येक मंगलवार को साप्ताहिक बाजार ( ग्रामीण हाट) लगने के कारण उस बाग का नाम मंगलबाजार ही पड गया है ।बिगड़ते बिगड़ते अब उस बाग का वर्तमान नाम मंगरबजरिया हो गया है। इस बाग में वर्तमान स्थिति की अपेक्षा आज के 15-20 वर्षो पहले अनगिनत, बहुत ही घने, मोटे- मोटे और ऊँचे- ऊँचे वृक्षों की श्रृखलाबद्ध कतारें हुआ करती थीं। इन विशालकाय वृक्षों की विशालता एवं मज़बूती देख कर लगता था कि वे अपनी शतकीय पारी कब की खेल चुके होगे। बाग इतना घना था कि दिन में सूर्य की तपती दोपहरी में भी उसके अन्दर अंधकार छाया रहता था। रात में उधर से आने जाने वाले लोग बहुत ही बच बचाकर निकलने का प्रयास करते। वैसे मेरे गाँव जाने के और रास्ते भी थे परन्तु उन रास्तों पर घूम के जाने के कारण उनकी दूरी बहुत बढ़ जाती थी। जिन्हे बहुत जल्दी होता वही लोग मंगलबाजार से जाना पसंद करते क्योंकि बाग को पार करते ही हमारा गाँव था।शाम होते ही मंगलबाजार चोरों लुटेरों और बदमाशों का शरणगाह बन जाता था। बचपन में मैने सुना था कि मंगलबाजार में बहुत से हत्याकांड, राहजनी और छिनैती जैसी घटनाएँ हो चुकी थी। मैने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके खाली बैठकर नौकरी ढूँढने की अपेक्षा घर के व्यवसाय में हाथ बंटाना ही उचित समझा। कई छोटे मोटे मेरे परिवारिक व्यवसाय थे। जिसमें एक मिनी बस हुआ करती थी। जिसका आल यूपी परमिट था।जो सुबह 6बजे बिस्कोहर से इटवा, इटवा से बांसी होते हुए नवसृजित जिले सिद्धार्थ नगर लगभग 10 बजे तक पहुंच जाया करती थी।और फिर एक फेरा सिद्धार्थ नगर से बांसी, बांसी से सिद्धार्थ नगर लगाकर साम 4 बजे सिद्धार्थ नगर से वापस चलकर रात 8 बजे तक वापस बिस्कोहर आ जाया करती थी । इसी मिनी बस के संचालन की जिम्मेदारी मेरे हाथों में सौंप दी गई। मुझे कुछ दिन के बाद मिनी बस के व्यवसाय में मज़ा आने लगा था।
एक बार सोमवार के दिन जब मैं सबेरे मिनी बस पर पहुंचा ही था कि बस के क्लीनर ने एक बुरी खबर सुनाई। उसने बताया की आज बस का कंडक्टर नहीं आने वाला। मैने देखा बस में कोर्ट कचहरी वाली सवारियां ठसाठस भरी बस के चलने का इंतजार कर रहीं हैं। मैने क्लीनर को कंडक्टरी करने के लिए उकसाया। परन्तु उसने खुद के नया होने और सवारियों के अधिक होने की बात कहकर कंडक्टरी करने में असमर्थता जताई। मेरा चिंतित होना लाजिमी था। मैने अपने ड्राइवर, कल्लू जो मेरे गाँव का ही था, को बुलाकर अचानक आई समस्या से निपटने के लिए विचार विमर्श कर ही रहा था की गोरा चिट्टा, छरहरे बदन का लगभग 35 या 40 वर्ष का लम्बा, साफ सुथरे कपड़े पहने एक व्यक्ति मेरी तरफ लपकता हुआ आया। आते ही सलाम ठोका "छोटे भैया नमस्कार !" मैने जवाब में सिर हिलाकर अभिवादन स्वीकार किया। वह बोलता रहा "मेरा नाम मेराज है, आपका कंडक्टर आया नहीं है, चिंता की कोई बात नहीं है। मेरी बांसी मुंसिफी में एक मुकदमे में पेसी है। बस 10 मिनट का समय दे दीजिएगा, वकील से मिलकर वापस आ जाऊँगा। आज दिन भर कंडक्टर का काम मैं कर दूंगा।" मैने उत्सुकतावश उसकी तरफ देखा। मेरी मनोभावो को चतुरता से ताड़ कर वह बोला "बिस्कोहर से बलरामपुर रूट पर चलने वाली बसों पर मैने कई बार कंडक्टरी की है। मुझे आप नहीं जानते परन्तु बड़े भैया मुझे अच्छी तरह से जानते हैं। हमलोगों का साथ उठना बैठना है।" मैने प्रश्नवाचक दृष्टि से कल्लू की तरफ देखा। कल्लू ने सिर हिलाकर सहमति जताई।अंधा क्या चाहे, दो नयना ,जो मुझे मेराज के रूप में मिल चुका था। मेराज तुरंत बस में चढ़कर सवारियों को व्यवस्थित करने लगा। मिनी बस सवारियों से ठसाठस भरी अपने गंतव्य की ओर रवाना हो चुकी थी। भीड़ अधिक होने के कारण बस में शोरगुल बहुत अधिक हो रहा था स्टाफ सीट पर बैठा मैं मेराज के कार्य का अध्ययन कर रहा था। वह अपना काम बहुत ही निपुणता से कर रहा था। हँस हँस कर सवारियों से बातें करते हुए किराया वसूलना, सवारियों को प्रेम से चढ़ाना और उतारना ऐसा लग रहा था कि वह पेशेवर कंडक्टर हो।मुझे उसका काम पसंद आने लगा था। मेरी चिंता का समापन हो चुका था। बस सिद्धार्थ नगर पहुंची सभी सवारियों के उतरने के बाद मिनी बस को स्टैंड पर खड़ी करने के बाद मेराज ने सारी आमदनी मेरे हाथ में थमाते हुए बोला "कैसी रही छोटे भैया ?" मैने उसके काम का तारीफ किया। फिर हम सभी लोगो ने होटल पर जाकर एक साथ चाय नाश्ता किया। इस बीच वह मुझसे बात करने का कोई मौका गँवाना नहीं चाहता था। मुझे मिनी बस का टैक्स जमा करने आर टी ओ कार्यालय जाना था। इसलिए बांसी के लिए नम्बर लगवाकर, बस की सारी जिम्मेदारी मेराज को सौंपकर मैं वहां से आर टी ओ कार्यालय के लिए रवाना हो गया।
शाम को जब मैं बस स्टैंड पर लौटा, उससे पहले ही मेरी मिनी बस बांसी से वापस आ चुकी थी। मुझे देखते ही मेराज तुरंत दौड़ कर होटल से
मेरे लिए चाय लेकर आया। मैने कहा "इसकी क्या आवश्यकता थी?" वह बड़े प्रेम से बोला "आप थके होगें, चाय पीजिए,"और उस फेरे की आमदनी मुझे पकड़ा दिया। मैने पैसे गिनकर जेब में रख लिए। नियत समय पर बस वापस बिस्कोहर के लिए चल दी। इस बीच मेराज पूरी तन्मयता से अपने कार्य में लगा रहा। बीच-बीच में जब वह खाली होता तो मेरे पास आकर इधर-उधर की बातें करने लगता। ज्यादातर उसकी बातों में उसके बड़बोले पन की बातें रहतीं थी। चूकी पढ़ाई लिखाई के चक्कर में मुझे अक्सर बाहर ही रहना पड़ा था इसलिए मैं यहां के लोगों को बहुत कम ही जानता पहचानता था। मेरा परिवार एक दबंग परिवार माना जाता था इसलिए जिसे मैं नहीं पहचानता वे भी मुझे पहचानते थे। मेराज से बातचीत करते करते मैं उस से पूरी तरह से उससे घुल मिल गया था। हम बिस्कोहर पहुंच कर बस को स्टैंड पर खड़ा करके हिसाब किताब करके सभी स्टाफ का वेतन आदि देकर बस को लाॅक करके घर की ओर रवाना होने वाले थे की मेराज बोल उठा "छोटे भैया, बहुत मेहनत किया हूं, थकान लग गयी है, थकान उतारने के लिए कुछ और पैसे दो ना।" मैं उसकी बात समझ गया था। जेब से 50 रुपये निकाल कर उसे हँस कर पकड़ाते हुए कहा "मेराज, तुमने आज मेरी बहुत मदद की।"वह चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए बोला "इसमें मदद की क्या बात है, आप भी मेरे छोटे भाई जैसे हो। वैसे एक बात बताऊँ आप मुझे अच्छे लगे। अगर मेरे लायक कोई काम पड़े तो बेझिझक मुझे याद करना। यहीं बगल में मेरा घर है। अच्छा बड़े भैया से मेरा नमस्ते कहना ..."कहते हुए वह वहां से चला गया।
मैं वहां से बड़े भैया के पास गया वे मेरा ही इंतजार कर रहे थे। हमलोग एक साथ अपने गाँव के लिए रवाना हो गए। रास्ते में भैया ने पूछा "आज की आमदनी कैसी रही ?" चूकी आज की आमदनी बहुत अच्छी थी सो खुश होकर मैने उन्हें सुबह से लेकर शाम तक सारी बातें उन्हें बता दीं। मेराज का नाम सुनते ही वे चौंक गए और विस्मय पूर्वक बोले "क्या मेराज तुम्हारे साथ था ? आज पुलिस उसे पकड़ने के लिए छापे मार रही है। बिना जाने तुमने उसे अपने साथ क्यो रखा ? " मैं भैया से कुछ बोल न सका। उनकी बातें सुनकर मैं सकपका गया था। आखिर हिम्मत करके मैने उनसे पूछ ही लिया "आखिर उसे पुलिस क्यों ढूंढ रही है?" भैया आश्चर्य से मेरी तरफ देखते हुए बोल पड़े "अच्छा तो तुम उसके बारे में कुछ नहीं जानते। सुनो मैं तुम्हें बताता हूँ- मेराज यहां का टाॅप मोस्ट वॉन्टेड अपराधी है। उसके ऊपर हत्या के प्रयास सहित राहजनी, ठगी, लूटपाट और आतंक फैलाने जैसे अनगिनत मुकदमें दर्ज हैं। दूर दूर तक उसके दहशतगर्दी की चर्चा होती है। लोग उससे डरते हैं। वह बहुत ही क्रूर इंसान है, दया नाम की चीज उसमें है ही नहीं। कहते हैं उसका कोई सगा नहीं होता है। अभी हाल ही में मंगलबाजार में दिन में ही एक किसान से उसने 50000 रूपये छीन कर फरार हो गया था। किसी बस की बैट्री और स्टेपनी चोरी करके बेच लिया। कल की बात है एक नयी नवेली दुल्हन के नाक से नथनी और कान से सोने की बाली झपटकर भाग गया है। दुल्हन के नाक और कान फट गए हैं । वह अस्पताल में एडमिट है। इसी लिए पुलिस उसे ढूंढ रही है। मैं आश्चर्यचकित सा भैया की तरफ देखता रह गया। भैया मेरे चेहरे पर आते जाते भावों को देखकर समझ गये की मेरे ऊपर क्या बीत रही है। वे मुझे सांत्वना देते हुए बोले "कोई चिंता की बात नहीं है, मैं सब देख लूँगा। परन्तु तुम आज के बाद उससे कोई संबंध मत रखना। उससे ऐसे व्यवहार करना जैसे तुम उसे जानते ही नहीं।" मैने हामी में सिर्फ सिर हिला दिया।
मैं घर पहुंच कर जैसे तैसे खाना खाकर बिस्तर पर लेट गया। शरीर में थकान होने के बावजूद नींद मुझसे कोसों दूर थी। रह रह कर मेराज का हँसता मुस्कुराता चेहरा सामने आ जा रहा था। उस मुस्कुराहट के पीछे छिपी क्रूरता की कल्पना से ही मेरा मन खिन्न हो जा रहा था। मैं सोच सोच कर हैरान हो रहा था कि आज का दिन मैने एक दुर्दांत अपराधी के साथ साथ बिताया। मैं सोच रहा था किसी के चेहरे मोहरे या उसके पहनावे को देखकर उसके व्यक्तित्व का निर्धारण नहीं किया जा सकता। यही सब सोचते सोचते पता नहीं कब नींद ने मुझे अपने आगोश में ले लिया।
माँ की आवाज़ से मेरी नींद टूटी। समय ज्यादा हो गया था। जैसे तैसे फटाफट तैयार होकर मैं घर से निकल रहा था कि माँ की आवाज़ कानों में सुनाई दी "चाय तो पीता जा....."परन्तु मैं कहां रुकने वाला। जल्दी में मैने मंगलबाजार का रास्ता चुनकर उसे पार करके बस स्टैंड पर ना जाकर बिस्कोहर तिराहे पर आ गया। देर हो चुकी थी। कल्लू बस लेकर तिराहे पर मेरा इंतज़ार कर रहा था। मैं लपककर स्टाफ सीट पर बैठ गया। बस अपने गंतव्य की ओर चल दी।मैने अपने कंडक्टर से कहा की समय मिले तो किसी होटल पर बस रुकवाना क्योंकि मुझे चाय पीना है। बस सवारियों से आज भी ठसाठस भरी थी।शोरगुल भी हो रहा था। इटवा के आगे मझौवा चौराहे पर कंडक्टर ने बस रुकवाया। और मेरे पास आकर बोला भैया चलो चाय पी लो। बस के रुकते ही सभी सवारियाँ भी चाय पीने के लिए नीचे उतर गयीं। हमलोग भी वहीं पड़ी एक बेंच पर बैठ गए। होटल वाला चाय नमकीन आदि देकर चला गया। कंडक्टर ने मुझे बताया की भैया तीन स्टाफ पुलिस के हैं। पुलिस स्टाफ अक्सर मेरी बस से यात्रा किया करते थे। उनका किराया नहीं लेने की हिदायत भैया द्वारा दी गई थी। पुलिस वालो का बराबर आना जाना लगा रहने के कारण अधिकतर मुझसे परिचित हो गये थे। एक परिचित पुलिसवाला मेरे पास आया मैने गर्मजोशी से हाथ मिलाकर उसका अभिवादन किया। और चाय वाले से उसके लिए भी चाय लाने को कहा। पुलिस वाले ने अपने साथी को भी चाय पीने के लिए नीचे बुलाया और चाय वाले से दो चाय और लाने को कहा। दूसरा पुलिस वाला नीचे उतरा तो मैने एक अकल्पनीय नज़ारा देखा। उसके हाथ में हथकड़ी की रस्सी थी। उसके पीछे दोनो हाथों में हथकडी लगाए लंगडाते- लंगडाते मेराज चला आ रहा था। उसके चेहरे पर दुख और व्याकुलता के भाव थे। चेहरा पीला पड़ गया था। बाल बिखरे और कपड़े गंदे हो गये थे। वह दर्द से कराह रहा था। पुलिस वाले ने डांट कर उसे नीचे बैठ जाने का आदेश सुनाया। मैने देखा की वह भरभराकर गिरते हुए नीचे बैठ गया। पुलिस वाला मेरी बगल में बेंच पर ही बैठ गया। मेराज ने मुझे देखकर हाथ उठाकर नमस्ते किया। मैने उसके प्रति कोई प्रतिक्रया नहीं व्यक्त की। चाय वाला दो और चाय लाकर मेरे सामने मेज पर रख गया। पुलिस वाले ने एक चाय उठा कर उसे पकड़ाते हुए हेय दृष्टि डालकर बोला "ले पी सा....."और दूसरी चाय उठा कर खुद पीने लगा। मेराज चाय के छोटे छोटे घूंट लेने लगा। सभी यात्री चाय पीकर अपनी अपनी सीट पर बैठने लगे थे। मैं भी चाय वाले को पैसे देने के लिए उठा ही था की मेराज कराहते हुए मुझसे बोला "छोटे भैया एक बंडल बीडी और एक माचिस दिला दो। "ना चाहते हुए भी मैं उसके आग्रह को ठुकरा न सका। होटल के बगल में स्थित पान की गुमटी से एक बंडल बीडी और एक माचिस लेकर उसकी गोद में उछाल दिया। पहला पुलिस वाला मेरे पास आकर बोला "इस कमीने को कुछ नहीं देना चाहिए था भैया। यह दया दिखाने के काबिल नहीं है। साले ने जीना हराम कर दिया था। अब यह गया साल छः महीने के लिए अंदर। अब क्षेत्र में शांति रहेगी। उत्पात मचा के रख दिया था सा .....ने "गालियों से नवाजते हुए पुलिस वाला उसे अंदर बस में चढ़ाने की कोशिश करने लगा।भीड़ अधिक होने के कारण वह मेरे पास ही खड़ा हो गया। पुलिस वाले अपनी सीट तक जाने के लिए रास्ता बना रहे थे। मौका पाकर वह मुझसे फुसफुसाया "छोटे भैया आपके पास से जा रहा था तभी इन लोगों ने मुझे पकड़ लिया। बहुत मारा है इन लोगो ने। सारे पैसे भी छीन लिए। पूरी रात भूखा रखकर पीटते रहे। हो सके तो मुझे सौ रूपये उधार दे दीजिए। माँ कसम वापस आते ही मैं आपके सौ रूपये वापस कर दूँगा।" इतना कहकर वह फफक फफक कर रोने लगा। मैने ऐसा प्रदर्शित किया कि जैसे मैने उसकी बातों को सुना ही न हो। तब तक पुलिस वालों ने उसे खींच कर उसकी सीट पर बैठा दिया। मुझ में भी उसके प्रति घृणा के भाव जागृत हो गये थे। मैं उसकी तरफ देखना भी नहीं चाह रहा था। बस में बैठा वह मेरे लिए भार लग रहा था। मैं चाह रहा था कितनी जल्दी बांसी आये और पुलिस इसको लेकर बस से उतर जाये। आखिर इंतजार की घड़ियां समाप्त हुईं । बांसी बस रुकी पुलिस वाले मेराज को लेकर उतरने को हुए। मैने भी पलट कर उस ओर देखा। वह आग्रह भरी याचक दृष्टि से मेरी तरफ देख रहा था। मेरी नज़रें उसकी नज़रों से मिलते ही मैं एक अनजानी अदृश्य शक्ति के वशीभूत हो अपने जेब से एक सौ रूपये का नोट निकालकर मेरे पास से होकर जा रहे मेराज के जेब में ठूंस दिया। मैने सुना वह कह रहा था "आपका एहसान जिंदगी भर नहीं भूलुंगा।" वे बस से उतर चुके थे। मैने बस की खिड़की से झांक कर देखा वह मुझे देख कर मुस्कुरा रहा था। उसके मुस्कुराहट में कुटिलता साफ झलक रही थी। उसकी कुटिल मुस्कान मेरे हृदय को चीर गयी थी। मैं अपने अचानक लिए गए निर्णय पर शर्मसार हो रहा था। मैं पश्चाताप की अग्नि में जल रहा था। परन्तु अब किया क्या जा सकता था? अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत। उस दिन भी वह मेरे विचारों में आकर मुझे व्यथित करता रहा। कुछ दिनो बाद मैं इस घटना को एकदम भूल चुका था।
लोक सभा चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी थी। प्रथम दो चरणों का चुनाव सम्पन्न करा कर अर्धसैनिक बल, पैरा मिलिट्री फोर्स और बी एस एफ के जवानो का तीसरे चरण का शांतिपूर्ण मतदान कराने हेतु मेरे जिले में पदार्पण हो चुका था। छोटी गाड़ियों का अधिग्रहण शुरू हो चुका था। मेरी मिनी बस का अधिग्रहण भी अर्धसैनिक बलों द्वारा आज शाम को कर लिया गया।अर्धसैनिक बल के कमांडर ने मुझे बताया की आप की गाड़ी चुनाव तक के लिए अधिग्रहित की जा रही है आप अपनी गाड़ी के साथ केवल एक ड्राइवर को रख सकते हैं।आज आप जाइए कल आकर लाॅग बुक वगैरह की फार्मेल्टीज पूरा कर लीजिएगा। मैने कल्लू को खर्च के लिए पैसे वगैरह देकर उसे अच्छी तरह से समझा कर कंडक्टर और क्लीनर को साथ लेकर घर वापसी के लिए सड़क पर आकर साधन का इंतजार करने लगा। लगभग सारी छोटी गाड़ियों का अधिग्रहण होने से यातायात के साधनों में भारी कमी हो गई थी। इक्का दुक्का गाड़ियाँ ही रोड पर दिखाई पड़ रहीं थी। यात्री भी परेशान दिखाई दे रहे थे। बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद एक रोडवेज की बस मिली। भीड़ बहुत अधिक थी। जैसे तैसे हम लोग बस में सवार हो गए। शाम के पांच बज रहे थे। लगभग एक घंटे बाद हम बांसी पहुंचे। वहां स्टैंड पर बहुत सी सवारियाँ बस का इंतजार करते हुए दिखे। बस स्टैंड पर कोई बस नहीं थी। दो घंटे के बाद एक बस आयी जो पहले ही ठसाठस भरी थी तिल फेंकने की जगह उसमें न थी। बस का कंडक्टर मेरे पास आकर आग्रह के स्वर में बोला "भैया चलना हो तो बस के ऊपर छत पर चढ जाइए ।अब कोई बस पीछे नहीं है ।आगे चलकर सवारियां के उतरने से जगह खाली होगी तो मैं आपको बुलाकर नीचे बिठा लूंगा।" मुझे उसका सुझाव अच्छा लगा, समय भी काफी हो रहा था। मैं बस की छत पर चढ गया। हम तीनों के छत पर चढ़ने से और कई लोग भी बस की छत पर चढ़ गये। लगभग 10 बजे हम लोग इटवा पहुंचे। इटवा स्टैंड पर भी कोई गाड़ी नहीं थी। हम लोगों को भूख लगी थी इसलिए पहले हम तीनों ने पेटपूजा करना उचित समझा। एक होटल में हम लोगो ने भोजन किया। इतने में मेरा परिचित जीप वाला, जो बिस्कोहर ही जा रहा था, मुझे देखकर रुक गया। उसने मुझसे पूछा "भैया बिस्कोहर चलना है क्या?" मैने कहा बहुत ही अच्छे समय पर आप मिले हो। हां चलना है।" हम लोग जीप में सवार हो गये। बातें करते हुए हम आगे बढ़ रहे थे, समय अधिक हो जाने से सड़क एकदम सूनसान सा पड़ा था। एक दो गाड़ियाँ ही रास्ते में मिली। कंडक्टर का घर रास्ते में था। उसका घर आने पर वह जीप से उतर गया। जीप जब बिस्कोहर तिराहे पर पहुंची तो मैने जीप वाले से जीप रुकवा लिया। जीप रुकते ही मेरे क्लीनर ने कहा "भैया काफी रात हो गयी है। आप इस मंगलबाजार वाले रास्ते से ना जाकर मेन मार्केट वाले रास्ते से घूम कर घर जाएं। थोड़ा दूर पड़ेगा मगर सुरक्षित तो रहेगा।" मैने उससे कहा "डरने की कोई बात नहीं, तुम लोग जाओ मैं आराम से चला जाऊँगा" मेरे क्लीनर ने मेरे साथ चलने को कहा। परन्तु मैने उसे मना कर दिया। जीप वाले ने आग्रह किया "भैया इतनी रात को घर मत जाइए, मेरे घर रुक जाइए, सबेरे उठ कर चले जाइएगा "मैं नहीं माना, उन्हें समझाया की कोई डरने की बात नहीं है। रोज तो आता जाता रहता हूँ।मैने जीप वाले से क्लीनर को उसके घर उतारने की हिदायत देकर पूछा "समय क्या हुआ है?"मेरे क्लीनर ने जवाब दिया "पौने एक हुए हैं भैया "और वे मुझे छोड़कर चले गये।
जीप की गड़गड़ाहट की आवाज़ जब तक सुनाई दी मैं वहां खड़ा रहा। उसके बाद मैं आगे बढ़ गया। चांदनी अपने शबाब पर थिरकी हुई थी, परन्तु जीप के जाने के बाद वातावरण जैसे एकाएक शांत हो गया था। अब मुझे अपने अकेलेपन का एहसास हु। कहीं दूर कुत्तों के भौकने की आवाजें आ रही थी।
मैं उन्हीं आवाज़ों के सहारे आगे बढ़ गया। मेरे पाँव अपने आप तेजी से आगे बढ़ने लगे जल्द ही मैं मंगलबाजार के बाग में घुसने वाली पगडण्डी के मोड़ पर पहुंच गया। मैं बाग के अंदर घुसने को उद्धत हुआ ही था की अचानक सियारों के हुक्का हुआं हुआं की तेज आवाज़ ने मुझे डरा दिया। मैने अपने पैर वापस खींच लिए। मुझे अपनी ग़लती का एहसास होने लगा था। मैं सोच रहा था कि जीप वाले और अपने क्लीनर की बात न मानकर मैने बहुत बड़ी ग़लती कर दी है। परन्तु अब मैं वापस भी तो नहीं जा सकता था। मरता क्या न करता। वहीं पर उगे एक बेहये का मोटा डंडा तोड़कर हाथ में लेकर अगल-बगल घुमाता मैं बाग में घुस गया। बाग में घुप्प अंधकार था। कहीं कहीं जहां पेड़ो में पत्तियां कम थीं वहीं चांदनी पत्तियों से छन कर ज़मीन पर छिटककर अंधकार को भगाने का असंभव प्रयास कर रहीं थीं। वैसे मैं अनगिनत बार इस रास्ते से आता जाता रहा हूँ। यहां दिन में ही झींगुरों की आवाजें सुनाई देती थीं पर मैने कभी इनपर ध्यान नहीं दिया। परन्तु आज जैसे झींगुरों की आवाजे बहुत तीव्र हो गयी थी ।यही झनझनाहट की जोरदार आवाजें बाग को भयानक और भयावह बना रही थीं ।उल्लूओं की काच कूच काच कूच की आवाजें मेरे बचे खुचे साहस को खत्म करने पर उतारू थे। मैं लगभग दौड़ने की तेजी से चलकर बाग को पार कर ही रहा था तभी मुझे अपने आगे कुछ सरसराहट की और सूखे पत्तियों के चरमराहट की आवाज़ सुनाई दी। मेरी गति में अप्रत्याशित इज़ाफा हो गया था। मैं आधा से ज्यादा बाग को पार कर चुका था। शेष भाग को जल्द से जल्द पार कर लेना चाह रहा था तभी एक कपड़कदार और भारी-भरकम आवाज़ मेरे कानों में पड़ी "ठहर जाओ वहीं पर!"उसकी विपरीत दिशा से भी उससे अधिक तेज़ आवाज़ आई "आगे मत बढ़ना "मैं निस्तेज सा वहीं ठिठक गया। जिस अनहोनी आशंका से मैं ग्रसित था वह घटना मेरे सामने घटित हो रही थी। मैं बहुत डर गया था। तभी मेरे पीछे से आवाज़ आई "कौन हो ? " मैं पीछे घूमना चाह रहा था। पर जैसे मुझे सांप सूंघ गया हो, मेरे शरीर में शक्ति नहीं रह गयी थी।
मेरा जबान सूख गया था। मैं उसे अपना परिचय देना चाह रहा था पर मेरे मुख से शब्द नहीं निकल पाए। इतना आभास हो गया था वे तीन थे। पत्तों से छनकर आने वाली चांदनी में धुँधली छवि दो लोगो की दिख रही थी वे मेरे अगल-बगल खड़े थे एक मेरे पीछे था। मेरे दाहिने खड़े आदमी ने मुझे पकड़ कर झकझोरा और झुझलाते हुए कड़का "कौन है तू? क्यो नहीं बोलता ? " मैने अपने आपको संभालते हुए बोलने के लिए मुंह खोला ही था की एक आकृति सामने से आकर मेरे पास ठिठक गयी। मुझे लगा की वह मुझे पहचानने का प्रयास कर रहा है। फिर वह बड़े प्रेम से बोला "कौन? छोटे भैया आप" मेरे मुँह से बोल फूटे "मेराज.....!" इतने में मेराज कड़कदार आवाज़ में गुर्राया "आदमी नहीं पहचानते तुम लोग। भाग जाओ यहां से। इन्हे कुछ हुआ तो अनर्थ हो जाएगा। चलो भागो यहां से दुबारा दिखाई मत पड़ना।" उसकी धमकी का प्रभाव तुरंत हुआ ।वे एक तरफ को चले गए सूखे पत्तों की चरमराहट उनके वहां से चले जाने का संकेत दे रही थी। मेराज बोला "चलो मैं आपको घर तक छोड़ देता हूँ " मैं उसके पीछे पीछे चल पडा ।वह फिर बोला "जमाना बहुत खराब है,ज्यादा रात होने पर कहीं रुक जाया कीजिए।" मैने लम्बी हामी भरी। बाग के बाहर आकर मैं बोला "अब मैं चला जाऊँगा, मेराज! तुम जा सकते हो "वह बोला "अच्छा, आप जाइए और हां बड़े भैया से मेरा नमस्ते कहना।" इतना कहकर वह पुनः उसी बाग में खो गया। मेरे बदन में थरथराहट अभी भी बरकरार था।धीरे धीरे अपने को सामान्य करते हुए मैं घर पहुँचा। दरवाजा पिताजी ने खोला और लगे डांटने "इतनी रात को चलते हो। तुम्हें डर नहीं लगता। किसी दिन ठोकर खाओगे तब मेरी बातों की कीमत मालूम होगी।" मैं भाग कर अपने कमरे में जाकर बिस्तर में घुस गया। आज फिर मेराज का चेहरा मेरी आँखो में घूम रहा था। उसके एहसान के कारण मेरे हृदय में उसके प्रति सम्मान जाग गया था। उसे जो 100 रूपये देना मुझे उस समय कचोट रहा था आज वह निर्णय मुझे गौरवान्वित कर रहा था। कोई लाख उसे अपराधी या दयाहीन कहे परन्तु इस समय मेरे लिए किसी देवता से कम नहीं था। इन्ही विचारों के बीच कब नींद आई पता ही नहीं चला ।
सुबह आँख खुली तो सबसे पहले ईश्वर को धन्यवाद दिया। पूरा बदन दर्द कर रहा था। उठने का मन नहीं कर रहा था। परन्तु मिनी बस का लाॅग बुक बनवाना था और कल्लू के कपड़े भी ले जाने थे। अनमने मन से उठ कर मैं तैयार होकर भैया को अधिग्रहण की सारी बात बताई। परन्तु कल रात की घटना का चर्चा तक किसी से नहीं किया। कल्लू के घर से उसके कपड़े लेकर मैं बस स्टैंड पर पहुंचा। वहां कोई बस नहीं थी। स्टैंड पर ही कई लोग मिल गये।सभी के साथ स्टैंड के एक होटल पर चाय पीने के लिए बेंच पर बैठ गया। इधर-उधर की बातें हो रहीं थीं। हम चाय पीते पीते बस का इंतजार करने लगे।इतने में एक 16-17 वर्ष का एक सुंदर नवयुवक मेरे पास आकर बोला "छोटे भैया आप ही हो?" मैने उत्सुकतावश कहा "हां मैं ही हूँ। बोलो क्या काम है?"नवयुवक ने अपने जेब से एक 100 रूपये का नोट निकालकर मुझे पकड़ाते हुए बोला "चाचा जी मैं मेराज का पुत्र हूं।अब्बा जब से जेल से छूट कर आए थे तब से कई बार मुझसे कहे की आपके सौ रूपए, जो शायद उन्होने आप से उधार लिए थे, आपको दे दूँ" मैने मुस्कुराते हुए उससे कहा "तुम्हारे अब्बा ने कल रात में वे रूपये मुझे वापस कर दिए हैं।" यह कहकर मैं उस नोट को वापस उसे पकड़ाने लगा। वह बोला "रूपये ले लीजिए चाचा जी, अब्बा कह रहे थे की भैया रूपये वापस नहीं लेंगे। परन्तु मैने वापस करने की कसम खाई है। यह रूपये उन्हें ज़रूर वापस कर देना। यह समझिए की उनकी यह अंतिम इच्छा थी।" मैं चौंक कर उसकी तरफ एक टक देखते हुए बोला "क्या बकवास कर रहे हो ? "वह बोलता गया "शायद आपको नहीं पता। अब्बा का इंतकाल हुए लगभग 15 दिन हो गये हैं। पुलिस वालों ने उन्हें बहुत मारा पीटा था। जेल में इलाज न हो पाने के कारण उनकी तबियत बहुत खराब हो गई थी ।जेल से घर आने के बाद इलाज चल रहा था। स्वास्थ्य में कुछ सुधार हो भी रहा था ।15 दिन पहले वह शाम को घर से निकले थे। रात में घर नहीं आए ।सुबह उनकी लाश मंगलबाजार में ......"मैं हतप्रभ सा शून्य को निहार रहा था। उसके आगे के शब्द मेरे कानों तक नहीं पहुंच रहे थे। तेज हवा चल पड़ी थी। मेरे हाथ में पकड़ा सौ का नोट बड़ी तेजी से फड़फड़ा रहा था।