बदलना है नियति
बदलना है नियति
खांसी ने रग्घू को आधा कर दिया था। बेटा छोटा था इसलिए अपनी लुगाई को ही संग मजूरी पर ले जाने लगा। "ओ रे रग्घू! आज कीने ले आयो ?" "म्हारी लुगाई है मालिक। संग आवेगी रोजीना, बेलदारी पे लगा लो ईने हजूर।" "ठीक है ठीक है तू बेफिक्र रह।"
"अरे ! या तो घणी छोटी दिखे।" " कोई बात नी। म्हारी बच्ची जैसी।" ठेकेदार बोला।
क्षकमसिन सी कांता पर ठेकेदार अक्सर दयादृष्टि रखता। वजनदार काम उसके हाथ से लेकर खुद कर देता। अभी कल ही... सीमेंट से भरी तगारी कांता के पांव पर जा गिरती अगर पीछे से ठेकेदार जी न आ गये होते। उस घबराया देख बोले -" बैठ जा। पाणी-वाणी पी ले।" " ज्यादा भारी वजन उठाणा बस की नाय थारे। "और पीठ थपथपाई। "
कितने अच्छे हैं ठेकेदार जी।" कांता सोच रही थी कि रग्घू आ गया कांता ने सारी बातें बताईं। " मैं कहता न था ठेकेदार जी बड़े दयालु हैं।" वह बोल उठा। और आज.... " रग्घू कोनी आयो कांई कांता" " अण तू भी आज घणी गुम सी बुझी लाग री। कांई बात छे....?" "कांई बोलूँ ठेकेदार जी। वी तो बुखार में तप रिया।" " आखी रात खांस्या हे। डॉ सा बोल्या ठीक होवा में घणों टेम लागेगो। दवाइयां भी घणी मंहगी आवें। कठे से करहूं ? " शाम को कांता के पति को देखने उसकी झोंपड़ी पर आ पहुँचा। " पाँच हजार रो खरचो हे मालिक। डॉ टी बी बतावै।
कुछ रकम की मदद मिल जाती।" जाते समय ठेकेदार ने 500/-रग्घू को दिए। रग्घू ने बाकी के लिए बेटे को उनके घर भेजने की कहा। ठेकेदार ने हामी भर दी। बाहर आकर कांता का हाथ पकड़ कर आंखों में आंखें डाल बोला-"बड़ी रकम की बात है।
तू ही आना शाम घर पर लेण को। छोरा को ना दूंगा। समझी ना।" आज ठेकेदार की मुस्कुराहट बड़ी कड़वी लगी कांता को। उसमें जो ज़हर घुला हुआ था उसका स्वाद वह रग्घू को कैसे चखाए..... कुल्हाड़ी को हत्थे से अलग कर अपनी ओढ़नी के छोर से बांध कर वह शाम को निकल पड़ी ठेकेदार से रकम वसूलना जो था।
