बदचलन
बदचलन
चिता पर लेटी शैल मुखाग्नि की प्रतीक्षा कर रही थी और सोच रही थी क्या ये ही मेरे घर वाले मुझ जली को जलाएंगे l उम्र के ग्यारहवे वर्ष से ही तो जला रहे हैं l दस ही वर्ष की थी जब ब्याह के आई थी l
पति,ससुराल जैसे शब्दों को ठीक से पढ़ और समझ भी न सकी थी कि जिन्दगी नरक की राह से गुजरने को तत्पर हो गयी थी l बचपन के उस रंग में लाल पीले रंगों से अभी ठीक से मुलाकात भी न हुई थी कि पति जैसी चीज के रंग से रंग दी गयी l सपनों की कोपलें फूट भी न सकी थी और अभी तो पति के चेहरे को मन भर देख भी न सकी थी कि सफ़ेद रंग ने मुझे चारों ओर से ढक लिया और महलनुमा घर के एक कोने ने मुझे अपनी बाँहों में समेट लिया lतेरहवां सावन बरसा ही था की जेठ की नज़रों ने मुझे आ घेरा l सफ़ेद रंग मेरा दागदार हो गया l शिकायत करने को मुँह खोल भी नहीं पाई की बदचलन का पैबंद मेरे चरित्र पर टांक दिया गया और अब दिन प्रतिदिन घर के किसी भी मर्द की मर्दानगी का शिकार हो जाती l इसी शिकार में माँ होने की अनुभूति दिलवाई ही थी कि घर की महिलाओं द्वारा कोख को खाली होना पड़ा l
अब जिन्दगी घर के काम काज से और जेठ ससुर देवर की कूड़ादान बन के चल रही थी l इस बार कोख में पल रही मेरी दुर्दशा को छः माह से उपर हो गये थे लिहाजा जान जाने का खतरा l मन ही मन बहुत खुश हुई थी कि शायद इसी बहाने अब इस नरक से छुटकारा मिल जायगा l पर अभी दुखों की मंजिल न मिली थी राह में ही थी lमुझे मरने भी न दिया l नौ माह बाद मेरे नवजात पुत्र को मेरी आँखों के सामने गलाघोंट के दफ़न कर दिया और मैं चीख के रो भी न सकी l मायके के दरवाजे कभी खुले ही न थे मेरे लिए लिहाजा घर से भागना ही सही लगा था और आमावस की रात निकल के गावं की दहलीज़ तक भी न पहुच सकी थी कि दबंग घरवालों ने घसीट कर अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया अब खाने को गम थे और पीने को आंसूं और सहने को इनके अत्याचार l
समय ही माँ बन के अपने आगोश में लेने को आगे बढ़ चुका था और मैं उसके आँचल के तले गहरी नींद में सो गयी l मेरी जली हुई आत्मा को अग्नि देकर मुझे मुक्त कर दो शैल की प्रतीक्षा ख़त्म कर दो l जल्दी कर दो l
