बाऊजी ने कहा था-भाग ३६
बाऊजी ने कहा था-भाग ३६
जीजी के पास आये हमें काफ़ी दिन हो गये थे। जीजी का जो रुटीन चल रहा था , उसमें हम कुछ हेराफेरी नहीं करा पाये। शुरू शुरू में तो हमारे कहने से वे बाहर निकलीं, उन्हें अच्छा भी लगा पर बाद में कहने लगीं -“अभी मन नहीं है” या “कमजोरी लग रही है”, और बाहर जाना टल जाता।
इस बीच हमने पानी की समस्या से निबटने के लिये बड़ी पानी की टंकी लगवाई, पुराने पाइप चेंज कराये, जिससे पानी ठीक आने लगा। लॉन में पानी पटवाने से वह हरा हो गया। हाइब्रिड सब्ज़ी के पौधे मंगवा कर रोपवाये, जिससे उसमें जल्दी ही फूल आकर सब्ज़ी होने लगी, काफ़ी खाद पानी देने से सब जगह हरियाली हो गई। जीजी को यह सब बताया। सुनकर कहने लगीं-“ तुमने करवा दिया, अच्छा किया। मैं बिस्तरे पर पड़ी हूँ, पहिले बाहर का देखूँ या अपना पैर ठीक करूँ ? चल नहीं पाती साल भर से ऊपर हो गया, बिस्तरे पर पड़ी हूँ, अकेले ही सब कर रही थी। इनको गये हुए नौ साल से ऊपर हो गया; अन्दर बाहर की सारी ज़िम्मेदारी खुद संभाल रही थी। “
एक दिन इनके बारे में पूछने लगीं-ये क्या कर रहे हैं?”
मैंने बताया-“ सुबह माली से बाहर काम कराया।”
जवाब आया-“ये नहीं करायेंगे तो क्या माली काम नहीं करेगा।”
मैंने कहा-“इन्होंने पानी दिलवाया, खाद डलवाया, अब सब्ज़ी हो रही है।”
“ तो क्या पहिले उजाड़. था ?क्या माली पहिले काम नहीं कर रहा था ? माली का जो काम है वह अपने आप करता रहता है”।जीजी ने स्पष्टीकरण दिया।
फिर बोलीं-“ ये यहॉं अपने रहने का कुछ तो जस्टीफिकेशन देंगे कि कुछ काम कर रहा हूँ।”
“ तो क्या ये चले जायें ?” मैंने प्रश्न किया।
“ मैं क्यों कहूँ चले जाओ ? न मैंने बुलाया। न जाने को कहूँगी। मैं तो बिस्तरे पर पड़ी हूँ, उठ नहीं सकती। मैं क्यों जाने को कहूँ, क्यों रहने को कहूँ ? ये इतने दिन नहीं आये तो क्या काम नहीं हो रहा था ?”
“ ये चले जायेंगे तो क्या काम नहीं होगा। मेरा काम चल रहा है। आज इसकी( दिन वाली नर्स की) तबियत ख़राब है। यह लेटी हुई है। इसका पास में घर है, पर नहीं गई, मैं नहीं उठाती।”
“तुम अपने लिखने में लगी रहती हो, तुम्हें इनसे कोई मतलब नहीं है।”
मैंने स्पष्ट किया-“ज़िम्मेदारी तो मेरी है,मुझे तो करना ही है”।
जीजी ने कहा-“ ज़िम्मेदारी तो जितनी है, सो है, नौकर नहीं है तो करती हो। नौकर है तो काम में सहारा देता है, यह बात सही है।”
जीजी की ज़िन्दगी एकदम अलग तरह से बीती। जीजा जी ने कभी एक पैसा भी इनके हाथ में नहीं रखा , जबकि ज़रूरत बहुत बड़ी थी; न बच्चे का कोई लाड़ कर पाई,न अपना कोई शौक सिनेमा आदि देखना पूरा कर पाई। घर का सारा काम अपने हाथ से किया। यहॉं तक कि जीजाजी को कौन से कपड़े पहनने हैं, कहॉं क्या पहिनकर जाना है, इसका निर्णय जीजी करती थीं। खाना कब क्या बनेगा आदि गृहस्थी की सब बातों का कंट्रोल जीजी के हाथ में था। पर अनुमति सहमति जीजाजी की ज़रूरी थी। अब जीजा जी का पेन्शन का पैसा आता है,तो जीजी कहती हैं कि अब इस पैसे का मैं क्या करुँ, जब ज़रूरत थी, तब तो मिला नहीं। कहती हैं कि “ मैं तो केयर टेकर हूँ, न पैसा अपना समझती हूँ, न घर अपना समझती हूँ। “
अभी भी कंट्रोल है। जो चाहती हैं, सो करती हैं। बिना इनसे पूछे कोई मेहमान आ जाये, यह भी बर्दाश्त नहीं। जीजा जी किसी मेहमान का आना पसन्द नहीं करते थे। आने वाले को पहिले पूछना ज़रूरी था। दूसरे की अधीनता जरा भी पसन्द नहीं। सभी काम अपनी मर्ज़ी से अपनी पसन्द का होना चाहिये। नहीं हो पाता, यह बात दूसरी है। अकेले रहते रहते संसार से निर्लिप्त हो गई हैं। न कुछ नया खाने की इच्छा है, न कुछ नया करने की इच्छा है।
कहती हैं कि “पूजा घर में नहीं जा पाती, सफ़ाई नहीं कर पाती तो कोई बात नहीं। भगवान् से क्षमा मॉंग लेती हूँ। मानसिक रूप से चारों धाम की यात्रा कर आती हूँ, बद्री केदार, जगन्नाथ जी के दर्शन कर लेती हूँ, रामेश्वरम् और द्वारिका धाम की यात्रा कर आती हूँ। सब मन ही मन स्मरण करती रहती हूँ।
जीजी कहती हैं-“ भगवान् ने ज़िन्दगी दी है। कर्मों का भोग है। जितना भुगतायेगा, भुगतना है। कर्म के बन्धन कटेंगे तो अगला जन्म नहीं होगा। भगवान् के भरोसे हूँ। कोई आशा नहीं है, निराशा नहीं है।”
उनकी बात सुनकर मन में विचार आया-“ स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या यही नहीं होते ?न आये की ख़ुशी, न गये का ग़म। न किसी चीज़ के प्रति उत्साह न उपेक्षा।न हर्ष न विषाद। न यह सोच कि कोई चला गया तो क्या होगा,कोई आ गया तो क्या होगा। बिस्तरे पर हैं। उठ नहीं पा रहीं। कोई बताता भी है कि ऐसे करिये, तो सुनने को तैयार नहीं। कहती हैं-“हॉं ,मैं उठ रही हूँ, उठूँगी, सब धीरे धीरे होगा”।
फिजियोथेरेपिस्ट को बुलाया था। वह आकर देखकर चला गया। उसने कहा-“ ये अपने विश्वासों में बहुत दृढ़ हैं। इनसे कोई कुछ नहीं करा सकता। बच्चे की तरह फुसलाकर कुछ बहलाकर करायें तो करायें, नहीं तो जैसा मन है वैसा करती हैं।”
बहुतों को देखा है कि बीमार हैं तो धैर्य खो देते हैं,कहते हैं-“ भई, तुम आ जाओ , मुझे बुख़ार है, पास बैठो”। या कहती हैं- तुम मत जाओ , मेरी दवाई कौन देगा,मैं कैसे रहूँगी, कैसे करूँगी।” और रोने भी लगती हैं कि “ मत जाओ”।रोकना चाहती हैं, पर जल्दी कोई रुकता नहीं, सबके अपने अपने काम हैं ,चले जाते हैं।
और ये जीजी हैं ,कितने भी कष्ट में हैं, किसी को रुकने को नहीं कहतीं। कोई आये या जाये, इनका कार्यक्रम निर्बाध चल रहा है , जब तक वह अन्तर्यामी चला रहा है, जिस पर निर्भर हो इन्होंने जीवन बिताया है।
सोचा था कि अकेली हैं ,अपराधबोध हो रहा था कि उनकी देखभाल ठीक से नहीं हो रही है।पर यहॉं आकर लगा कि वे इस सब से दूर हो चुकी हैं। प्रभु के चरणों में पूर्ण समर्पण है। हम रहें या जायें, इन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता, यथा स्थिति को स्वीकार कर लिया है।
जितना हम कर सकते थे, हमने कर दिया। आगे उनकी बिना मर्ज़ी के कुछ नहीं कर सकते। हमने सोचा था वे खड़ी हो जायेंगी। पर उनका कहना है कि “धीरे धीरे सब होगा, तुम क्यों परेशान होती हो। खड़ा होना होगा तो खड़ी हो जाऊँगी, नहीं हो पाई तो भी कोई बात नहीं।यही बहुत है कि और कोई बीमारी नहीं है। स्वस्थ हूँ। खा पी रही हूँ। सो रही हूँ। उठ बैठ रही हूँ, बात कर पा रही हूँ। कान से थोड़ा कम सुनाई देता है। यह भी अच्छा है। सब ठीक है। प्रभु की कृपा है। सुख में भी वह है, दुःख में भी वह है। सब वही देख रहा है। सब वही कर रहा है। स्मरण में भी वही है, विस्मरण में भी वही है।”
इसी जीवन में स्थितप्रज्ञ, निःसंग, अनासक्त निस्पृह हुआ जा सकता है, कोई इच्छा नहीं ,आशा- निराशा नहीं, ऐसा जीवन अनुकरणीय हो सकता है यदि कोई करना चाहे। यह सुख दुःख से ऊपर उठने की अवस्था है।