बाल विवाह- एक कू प्रथा
बाल विवाह- एक कू प्रथा
“बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ" का नारा आप सभी ने सुना और लिखा देखा होगा। परन्तु आज भी समाज में कुछ ऐसे लोग है जो इस नारे की कद्र नहीं जानते। ऐसी ही एक घटना मेरे जीवन में भी घटित हुई। सुबह का समय था। प्रतिदिन की तरह मैं स्नान करके विद्यालय जाने के लिए तैयार हुई। मेरी सहेली निशा, चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान लिए और आंखों में सपने सजाए रोज मेरे साथ स्कूल जाती थी। हमारी मित्रता राम और लखन के प्रेम के समान थी। हम दोनों एक दूसरे से अपनी सारी बातें साझा करते। हम दोनों सदैव साथ रहते, साथ पढ़ते और साथ खेलते। उसके साथ बीता हुआ हर एक पल बहुत ही अद्भुत हुआ करता था। परंतु उसके परिवार के विचार आजकल के समय के अनुसार बहुत भिन्न थे।
एक दिन वह ना तो मेरे साथ स्कूल गई और ना ही मेरे घर आई। निशा के विषय में उसकी माता से पूछा तो पता चला कि उसे तेज ज्वर है। वह कुछ दिनों तक स्कूल नहीं आएगी।
काफी दिन बीत गए। मेरा हृदय निशा के लिए व्याकुल हो उठा। मुझसे रहा न गया। मैं निशा के घर गई ही थी, इतने ही उसके परिवार के किसी सदस्य मुझसे बड़े ही शासक स्वर में पूछा, “तुम्हारे यहां आने का क्या कारण है? क्या तुम्हें पता नहीं है कि आज निशा का विवाह पास वाले बड़े मंदिर में हो रहा है। मैं उसी समय कांप उठी और मैं तुरंत बड़े मंदिर की तरफ भागी। वहां जाकर देखा तो मेरा रोम - रोम कांप उठा। वहां देखा तो निशा कातर होकर लाल जोड़े मैं मंडप की ओर जा रही है। वह दृश्य देखकर मैं स्तबद रह गई।
मैंने निशा के पिता जी से पूछा कि, “आप निशा का बाल विवाह क्यों कर रहे हो? अभी तो निशा की उम्र 18 साल भी नहीं है। ये तो आप निशा के साथ अत्याचार कर रहे है। अभी तो निशा की उम्र पढ़ने, मौज - मस्ती करने और अपने सपने पूरे करने की है। इतना सुनते ही उन्होंने बड़े तेज स्वर में कहा कि लड़कियों के हाथ कलम पकड़ने नहीं अपितु रसोई संभालने के लिए होते हैं, हमें अपनी बेटी को आजीवन इस घर में बोझ बनाकर नहीं बिठाना है। यह सुनते ही मैंने ठान लिया कि मैं अपनी सहेली का बाल विवाह नहीं होने दूंगी। इसके पश्चात मैंने अनेक कोशिश की। सबसे पहले मैंने पुलिस को सूचित करने का प्रयत्न किया परंतु मेरी यह कोशिश कामयाब ना हो पाई। मुझे जीवन भर इस बात का दुख रहेगा कि मैं अपनी सहेली की जिंदगी बर्बाद होने से ना बचा सकी।
