padma sharma

Drama Tragedy Inspirational

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Drama Tragedy Inspirational

अपना घर

अपना घर

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आज फिर रमेश उस मकान को बाहर से देखता हुआ निकला। उसने लम्बी सांस ली जैसे वेदना उसकी साँसों में समा गयी हो। दर्द का गोला बनकर छाती में धंसता चला गया। वह जब भी उस मकान के पास से गुजरता उसके पैरों में कम्पन आ जाता, उसके कदम डगमगाने लगते एक कदम भी चलने में असमर्थ। वह सोचता मकान के बाहर बने चबूतरे पर थोड़ी देर सुस्ता ले, पर रुक न पाता। उसकी साँंस फूलने लगती, जैसे वह मीलों चलकर आया हो। उस मकान को देख उसकी आँखें पनीली हो जातीं और वह आँख की कोर में आये आँसू की बंूदों को अपनी तर्जनी से पोंछते हुए चारों तरफ नजर फेंकता कि किसी ने उसे रोते हुए तो नहीं देखा।

यह मकान उसके लिए सिर्फ ईंट और गारे से बना मकान नहीं था। वरन् उसमें उसकी आत्मा बसती थी। उसने इस मकान को बड़े मन और जतन से बनवाया था। उसे अच्छी तरह याद है कि जब शहर केे बाहर सुनसान एरिये में प्लॉट कट रहे थें तो प्लॉट खरीदने के लिए उसके पास रुपये नहीं थे। बच्चों के नाम जमा-पूँजी और थोड़ा बहुत घर बाहर से पैसों की व्यवस्था कर जैसे-तैसे उसने प्लॉट ले लिया था। कई वर्शों तक इसी आशा में प्लॉट भी राह देखता रहा कि इस पर मकान बन जाये।

 रमेश एक मिल में नौकरी करता था। अपनी छोटी सी तनख्वाह में तीन बच्चों का पालन-पोशण कर रहा था। वे लोग किराए के मकान में रहते थे। रमेश और उसकी पत्नी सुमित्रा के मन में अपना घर बनाने की ललक थी। किसी न किसी बात पर रोज ही मकान मालिक की रोक-टोक लगी रहती, बच्चे खेल नहीं पाते। घर में कैदी सा जीवन बिताना पड़ता। रमेश के मन में अपने घर की कल्पना पैठ जमाने लगी।

रमेश को एरियर का कुछ रुपया मिला और बांकी का रुपया बैंक से लोन लेकर उसने मकान बनवाना शुरु कर दिया। नगरपालिका से मंजूरी व नियमों अनुसार व्यवस्था करते-करते वह परेशान हो गयां... । गांव मे खानदानी मकान था जो अब खंडहर था, रमेश गांव गया उसे परयादआया था कि कुछ ऐसी चीजें हो सकती है जो नये मकान में काम आयें । वहा रमेश्ं ाके अपने पुराने मकान में दीवाीर पर एक पत्थर पर उकेरी गणेश जी एक पतिमा दिखी जिसके नीचे लिखा था-अपना घर! पत्थर की बनी बारीक जाली भी रमेश को लायक लगी। वह ले आया और रख ली सबसे जरूरी चीज जो उसने ल ीवह थी अपने ए मकान की एक मुटठी मिटठी....जिसे उठाते वह पुलकित हो गया। मकान में पहले एक कमरा, किचिन और लैट बाथ बनवाया। दरबाजे पर अपने मकान में मिले गणेश जी और पत्थर की जाली उस मकान में लगाई और मिटठी तो पूरे घर में बिखेर दी तो उसे लगा िकवह वापस बचपन के गांव और घर में पहुंच गया है।

जब उसने प्रवेश किया तब उसे लगा कि उसे ज़़न्नत मिल गयी। हर गृहस्थ का सपना होता है कि उसका अपना घर हो। मध्यवर्ग भले ही महल खड़ा न कर पाये पर छोटे से घर में भी वह महल के राजा की भाँति शासन करता है। धनाड्य वर्ग के पास तो कई- कई मकान होते हैं। ईंट, गारे और सीमेंट से बने मकान। वे लोग घर तो सिर्फ एक को ही कह पाते हैं क्योंकि रहेंगे तो सिर्फ एक ही घर में। अन्य मकानों में तो किराएदार रखते हैं।

उसे अंग्रेजी की पंक्तियाँ याद आयीं ‘‘भ्वउम पे इनपसज इल मंतजदक वनेम पे इनपसज इलदक’’ सच पूंछो तो अपने बनवाये हुए या खरीदे हुए घर में जो रहता है वो खुशनसीब होता है। किराए से रहने वाले मकानों में किराएदार ही किस्मत वाला होता है। किसी ने कहा भी है कि ‘‘मूर्ख मकान बनवाते हैं और समझदार उनमें किराए से रहते है।’’

वो सुनसान जगह जहाँ रमेश ने घर बनवाया था, न जाने कब चहलपहल में तब्दील हो गया। खुद का मकान बनवाने की चाहत लिये कई लोगों ने वहाँ मकान बनवा लिये। उसने छोटी सी जगह मे बगीचा भी तैयार कर लिया था। सब कुछ अच्छा चल रहा था, पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। मिल घाटे में जाने से कर्मचारियों की छंटनी शुरु हो गयी। रमेश और उसकी पत्नी सुमित्रा के मन में भी चिन्ता गहराने लगी कि एक दिन ये गाज उनके ऊपर भी गिरने वाली है। दो माह बाद उसे भी सेवा से मुक्त होने का पत्र मिल गया।उसकी यूनियन ने भी खूब प्रयास किये, धरने दिये और रैली निकाली पर कुछ हल न निकल सका।

छँटनी हुए कर्मचारियों ने कोर्ट में केस लड़ने का फैसला किया। अब पचास की उम्र में वे कहाँ काम करने जायेंगे ? जो लोग गाँव में रहते थे, वे पुश्तैनी जमीन में खेती-बाड़ी करने गाँव चले गये। रमेश के पास पुश्तैनी जमीन तो थी लेकिन वह अपना हिस्सा ाछोड आया था उसके सामने़ कोई कारोबार न था।बच्चों की उछल-कूद, पढ़ाई-लिखाई और उनकी मांगों में दिन तो गुजर जाता, पर रात में चिन्ता और बेचैनी बढ़ जाती। अंधेरा अपने साथ दुःख को भी सघन करता है, यह उसने दुःख में बिताई रातों में ही समझा था।

रमेश ने बहुत प्रयास किया कि ऐसी कोई नौकरी मिल जाये जिससे गृहस्थी चल जाये। कोई बड़ी डिग्री या डिप्लोमा तो उसके पास था नहीं जो उसकी नौकरी में सहायक सिद्ध होता। काम करने का जो अनुभव उसे था वो किसी मिल में ही काम आ सकता था।

अब कोर्ट कचहरी के चक्क्र भी शुरु हो गये। रुपयों की आवश्यकता पड़ने लगी। घर का खर्च चलाने के लिये दुकानों की भी उधारी हो गयी। बच्चों की पढ़ाई, उनके खर्च सभी के लिये रुपये चाहिये। जब धन पास में हो तो वो अपनी चमक से चकाचौंध पैदा करता है पर जब धन न हो तो उसकी खनक मन में खड़क पैदा कर देती है।रुपयों की आवश्यकता पड़ने लगी। अभी तक घर का खर्च चलाने के लिए दुकानों की भी उधारी हो गयी थी।

बच्चों की पढ़ाई, उनके खर्च सभी के लिए रुपये चाहिये थे। जब धन पास हो तो वो अपनी चमक से चकाचौंध पैदा करता है। पर जब धन न हो तो उसकी खनक मन में खड़क पैदा कर देती है।

रमेश ने कहा- अब मुझे कोई राह नहीं सूझ रही है। बच्चों की फीस भी जमा करनी है।’’

सुमित्रा समझाते हुए बोली- ‘‘धीरज रखो .. सब ठीक हो जायेगा।’’

रमेश ने गहरी साँस लेकर कहा- ‘‘अब तो लगता है अपना घर बेचना पड़ेगा।’’

‘‘नहीं बड़ी मुश्किल से तो सर पर छत नसीब हुयी है। ऐसा मत करना’’ सुमित्रा ने जिरह की

रमेश दुखी होकर बोला- ‘‘घर में मेरी भी जान बसती है। कैसे-कैसे रुपयों की व्यवस्था करके ये दीवारें खड़ी की हैं।इसमें हमारा पसीना नहीं खून लगा है। घर के गणेश जी यहां बैठे है।’’ सुमित्रा उससे सहमत थी, वह भी आहत होकर बोली‘‘ मैंने धूप में खड़े होकर अपनी आंखों के सामने इस मकान कोेबनवाया है। ऐसे कैसे हम इसे बेच देंगे ?जिस चीज का निर्माण करो वो बच्चे जैसा होता है क्या हम अपने बच्चे को ही बेच देंगे।’’

रमेश निरुत्तर हो गया, थोड़ा रुककर फिर से बोला-‘‘ तुम सही कहती हो सुमित्रा ! पर इसके अलावा और कोई चारा नहीं है। कर्ज चुकाकर जो रुपये बचेंगे मै उनसे कोई नया कारोबार शुरु कर दूंगा

मन मसोस कर सुमित्रा बोली-तुम ठीक रहो और हमें क्या चाहिये। तुम सलामत रहोेगे तो ऐसे मकान और खड़े हो जायेंगे।’’

रमेश ने अपने पुराने मित्र सुबोध को ‘‘अपना घर’’ बेच दिया। घर छोड़ते समय वह दीवारों से लिपटकर बहुत रोया। रमेश उसी कॉलोनी मेंु किराए से रहने लगा। जब भी उधर से निकलता, अपने घर को देखकर उसके मुँह से आह निकल जाती। सुबोध उसे घर बुलाता पर घर बेचने के बाद वह उसके अन्दर नहीं गया। घर में ताला लगा रहता।

दीपावली का दिन आया। रात में रमेश ‘अपने घर’ कंो देखता हुआ निकला। मकान पर रंगीन बल्वों की झालर टंगी है । वह तीन-चार बार उधर से निकला पर उसे दरवाजे पर बैठे गणेश जी के सामने दीपक जलता नहीं दिखा। खुद को समझाने की उसने लाख कोशिश की पर उसका मन अपने घर की ओर दौड़ रहा था। आखिरकार उसने किराए के इस घर से एक जलता हुआ दीपक उठाया और ‘अपना घर’ के दरवाजे पर रख आया।

सुबोध ने जब जलता दीपक दरवाजे पर देखा तो वह हैरत में पड़ गया, लेकिन कुछ न समझ पाया। दीपावली के पांच दिनों के त्यौहार में हर रात रमेश सुबोध के घर के दरवाजे पर एक जलता दीपक रखने लगा। सुबोध समझ गया कि ‘अपना घर’ के दरवाजे पर रमेश ही जलता दीपक रख जाता है। सुबोध ने कभी रमेश से इसका जिक्र नहीं किया। वो चाहता तो खुद दीपक रख सकता था, पर वह जानता था कि रमेश की आत्मा ‘अपना घर’ में बसती है और ऐसा करने का हक उससे नहीं छीनना चाहिए। उसने खुद को ये तर्क दिया कि एक तरह से रमेश तो उन लोगों के दरवाजे पर दीपक जलाकर उनकी समृद्धि की प्रार्थना कर रहा है। साल भर बाद सुबोध का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया। सुबोध को घर में किरायेदार रखके दूसरी जगह जाना था। वह असमंजस में था कि घर सूना रहेगा तो इसमें दिया सुबह शाम की आरती कौन करेगा। खाली घर में तो भूत बसते हैं। घर किसी को किराए पर देते हैं तो क्या पता किराएदार इसकी हिफाजत किस तरह से करे, या क्या पता वो घर पर कब्जा ही जमा ले। किसी जान पहचान वाले को ही घर किराए पर देना होगा। अचानक उसके मन में रमेश का नाम कौंध गया। उसे पता था कि रमेश से बेहतर इस घर की देखभाल कोई नहीं कर सकता।

अगली सुबह सुबोध रमेश के घर पहुँच गया। सुबोध ने आग्रह किया कि रमेश अपने घर में रहने लगे और जो किराया यहाँ देता है, वह देता रहे। ‘अपने घर’ में रहने की बात सुनकर रमेश का दिल बल्लियों लगा। वह सोंचने लगा मालिक बनकर न सही, किराएदार बनकर ही सही, कम से कम अपने घर में रह तो लेगा।

वह धर में रहने की कल्पना से ही खुशी से भर उठा। पुरखों के मकान की चीजें अब उसके साथ होंगी।


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