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Sudhir Srivastava

Tragedy

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Sudhir Srivastava

Tragedy

अंतिम दर्शन से वंचित

अंतिम दर्शन से वंचित

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संस्मरण


   होली के लगभग एक सप्ताह पूर्व ११ मार्च २००० को मेरे पिताजी (श्री ज्ञान प्रकाश श्रीवास्तव, ग्राम विकास अधिकारी, विकास खंड मिहींपुरवा) का निधन विभागीय कार्य हेतु सेंट्रल बैंक आफ इंडिया की मिहींपुरवा, बहराइच उ.प्र. शाखा में ब्रेन हैमरेज से हुआ था।

    मुझे अपनी बात रखते हुए पीड़ा भी हो रही है और अपने निर्णय संग दुर्भाग्य पर तरस भी आता है कि ९ मार्च'२००० को ही अपने एक रिश्तेदार (मामा) के साथ बिना किसी को सूचित किए गोण्डा से महर्षि महेश योगी जी के गाजियाबाद स्थित आश्रम के लिए चला गया था। १० की सुबह लगभग ८-९ बजे वहां पहुंचकर अपने एक दूर के रिश्तेदार (जिनके आमंत्रण पर हम दोनों गये थे) की व्यवस्था में दैनिक क्रिया और नाश्ता आदि से निवृत्त हो गये।

    लगभग १२-१२.३०बजे रिश्तेदार ने मामा से पूछा कि मिहींपुरवा में कौन रहता है। मामा ने जब मेरे पिताजी का नाम लिया तो रिश्तेदार ने मुझसे कहा कि तुम्हारे पिता जी की तबीयत अधिक खराब है, बहराइच में एडमिट हैं, तुम ऐसा करो कि अभी निकल जाओ, और सीधे घर जाना। यह बात थोड़ी अखरी जरूर, मगर तर्क वितर्क का समय न था ।

   उस समय फोन की आज जैसी सुविधा तो थी नहीं और किसी तरह ही मेरे गाजियाबाद में होने की जानकारी मामा के यहां से हो पाई थी। लिहाजा सब परेशान भी थे।

   अंततः मामा और मैं लगभग एक घंटे में निकल गये। हड़बड़ी इतनी कि हम बस से घर के लिए निकल पड़े, जैसा कि मुझे अनहोनी की आशंका तो हो ही गई थी।

    किसी तरह अगले दिन गोण्डा पहुंचे और तब तक वहां दूर के चाचा मुझे मोटरसाइकिल से लेकर लगभग ३६ कि.मी दूर गांव लेकर पहुंचे। तब तक हल्का अंधेरा हो चुका था। घर के बाहर के माहौल ने दूर से ही कह दिया कि सब कुछ खत्म हो चुका था।

    चूंकि पिता जी की मृत्यु एक दिन पूर्व हो चुकी थी, बहराइच में डाक्टर की घोषणा तो महज औपचारिकता भर थी। मम्मी और अन्य रिश्तेदारों के साथ पापा के खण्ड विकास अधिकारी, कार्यालय के अन्य सहयोगी उनके मृत शरीर को गांव लेकर आते थे। अगले दिन तक मेरा इंतजार किया गया, मगर दुर्भाग्य वश मुझे पिताजी के अंतिम दर्शन ही नहीं दाह संस्कार का भी अवसर नहीं मिला।

   मेरी अनुपस्थिति में मेरे सबसे छोटे भाई ने दाह संस्कार किया और फिर मेरे आने पर आगे के रीति रिवाज का निर्वाह मैंने पूर्ण किया।

   अब इसे विधि की व्यवस्था कहूं या अपनी मूर्खता या दुर्भाग्य। जो भी कहा जाये मगर मुझे अपने पिता के अंतिम दर्शन न मिलने की टीस तो जीवन भर रहेगी ही। 



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