Phool Singh

Drama Classics Inspirational

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Phool Singh

Drama Classics Inspirational

अंगराज कर्ण

अंगराज कर्ण

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सूर्य कहलाए पिता थे जिसके

माता सती कुमारी

जननी का क्षीर चखा न जिसने

वो वीर हुआ बड़ा धनुर्धारी।।


निज समाधि में निरत रहा

स्वयं विकास किया था भारी

अनिल की धार बनी थी उसका पालना

काठ की बहती चली पिटारी।।


ज्ञानी-ध्यानी, प्रतापी-तपस्वी 

जिसका पौरुष था अभिमानी

कोलाहल से दूर नगर के

जो सम्यक अभ्यास का था पुजारी।।


वन्यकुसुम सा खिला कर्ण था

माथे पर सूर्य का तेज जिसके भारी

धनुर्विद्या का ऐसा ज्ञाता

जानने व्याकुल नगर के थे नर-नारी।।


सर्वश्रेष्ठ योद्धा अर्जुन जग में 

ये मन में खलल थी डाली

कूद गया वो भरी सभा

सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने दावेदारी।।


अवेहलना कर भरे समाज की

अर्जुन को चुनौती देने की ठानी

शूरमा कब तक चुप बैठते

जब गुरु द्रोण ने सीमा लांघी।।


स्तब्ध खड़े सब देखते रह गए 

आई विपदा कहां से भारी

जाति-गोत्र थे सारे पूछते

जिसकी अर्जुन ने चुनौती है स्वीकारी।।


सुन विदर्ण हो गया उसका हृदय

किस्मत छल फिर से कर डाली

गुण-ज्ञान का क्या मोल न जग में 

इससे त्रस्त क्यूं दुनियां सारी।।


क्षोभ में भर कर राधेय बोला 

वीरों के भुजदंड ने दुनियां तारी

जाति-गोत्र हो क्यूं पूछते

होती, इससे समाज के हित की हानि।।


केवल राज बगीचे में नही है खिलते

अद्भुत वीर, ब्रह्मचारी

चुन-चुनकर रखती वीर अनोखे 

ये पृकृति की बात निराली।।


शक्ति हो तो सामना करो अर्जुन

बीच में जाति-पाति की बात क्यूं लानी

क्षेत्रियों का तो एक धर्म है

सभी चुनौती जो स्वीकारी।।


कृपाचार्य आगे आए 

तुम पर माया क्रोध ने डाली

राजपुत्र से द्वंद जो चाहते

होने राजा या राजपुत्र की शर्त रख डाली।।


सयोधन आता शाबाशी देता

निडरता से जिसकी यारी

युवराज के हक से राजा बनाता

जिम्मेदारी अंगदेश की कर्ण पर डाली।।


मुकुट उतारकर अपने सर से 

सयोधन ने नई दोस्ती की नींव थी डाली 

अपमानित हो रहा एक वीर अनोखा 

उसकी लाज थी उसको बचानी।।


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