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yashwant kothari

Inspirational

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yashwant kothari

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अंधकार से प्रकाश की ओर .....

अंधकार से प्रकाश की ओर .....

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जैसे जैसे रात गहराती जाती है, वैसे वैसे अन्धेरा बढ़ता जाता है और जैसे जैसे अन्धकार बढ़ता जाता है, वैसे वैसे प्रकाश के महत्व का पता लगता जाता है। अमावस्या की निविड़ अन्धकार वाली रात्रि ही तो दीपावली की रात्रि है, घोर अन्धकार पर प्रकाश के साम्राज्य को स्थापित करने वाली रात्रि। अन्तहीन अन्धेरा एक दीपक के मामूली प्रकाश से दुम दबाकर भाग जाता है, मगर आज कहां है वो दीपक, जो अन्धकार को प्रकाश में बदल दे। आज चारों ओर निराशा का साम्राज्य है। अन्धकार स्थापित हो चुका है। ऐसे समय में अन्धेरों से जूझने की आस्था कहां से आये। प्रकाश की किरणों को किस सूरज में ढूंढ़ा जाए। साहित्य, कला, राजनीति, जन नीति, विज्ञान सर्वत्र निराशा का माहौल है। निराशा के इस दौर में आस्था को कैसे पाए। निराशा से बचने का एक उपाय है कि व्यक्ति आत्म निरीक्षण करे। आत्मावलोकन करें, और अन्धकार को, निराशा को दूर करने के लिए आत्म निरीक्षण का दीपक जलाए शायद प्रकाश की किरणें अन्दर से फूटे।

     आज का युग श्रम और अर्थ का युग है। तेजी के साथ समाज की मान्यताएं, आवश्यकताएं, स्थितियां बदल रही हैं। हमारी आय, वास्तव में हमारे श्रम का पारिश्रमिक मजदूरी है। सम्पन्नता जीवन का आलोक है, जो अन्धकार को दूर करने की सामर्थ्य रखता है। दीपावली के पर्व पर श्रम की महत्ता को आत्म निरीक्षण से जोड़ें।

     हमारी मान्यताएं, सामाजिक चेतना हर्प और उल्लास, उत्साह और उमंग ये ही तो हमारी धरोहर है। आलोकपर्व पर श्रम की महत्ता को समझें तभी और सम्पन्नता आयेगी। निराशा दूर होगी, आस्था आयेगी। अन्धकार दूर होगा, आलोक और उल्लास आयेगा, हमारी परीक्षा की धड़ियां समाप्त होगी।

     आलोक की तलाश अपने अन्दर ही की जानी चाहिए। यह तलाश अपने भीतर करें, दर्शन के अन्दर करें। अन्धकार बार बार आये हैं ओयेंगे मनुष्य और समाज इस अन्धकारों को पार कर जायेगा। अन्धकार तो प्रकाश के आने की दस्तक है, और दस्तक आ जाने के बाद किरण आने ही वाली है, ये सोचकर इंतजार करें। आंखें जब बंद हो जाती हैं, शब्द जब असमर्थ हो जाते हैं, कविता जब मर जाती है, नादब्रहम अस्वस्थ हो जाता है तब प्रकाश मनुष्य को अपने अंदर से मिलता है। ज्योत्स्ना की अन्दर से बाहर की ओर की यह यात्रा ही शायद परम पद प्राप्त यात्रा है। रास्ते की फिकर न करें, यात्रा जारी रखें।

     इतिहास साक्षी है, हमने कितनी बार अपनी इस दुर्गम यात्रा के अन्धेरों को पार किया। निविड अन्धकार की इन पार्टियों के पार के सूर्योदय को देखा है। अभ्यासी पांवों से अन्धकार को पार किया है। अपने ही हाथों से टटोल कर हम आगे बढ़े हैं। कोई न कोई आन्तरिक शांति हर बार हमें उबार लेती है। हमारा हाथ पकड़ कर रास्ता पार करा देती है। बिना डरे हम रास्ते के उस पार जाकर खड़े हो जाते हैं, और हांफते हुए फिर चल पड़ते हैं।

     अविराम, निरन्तर चलते जाना ही हमारी नियति है। यात्रा देश की हो या स्वयं की, अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना ही सच्चे अर्थेा में महायात्रा है। हम इसी महायात्रा की कहानी एक दूसरे को बताते हैं, ताकि रास्ता आसानी से कटे और बातों की फुलवारी से बगिया महके।

     हाथ को हाथ नहीं सूझता। अन्धकार में शस्त्र अपने ही हाथों को काटे तो क्या करें ? लेकिन स्पर्श कभी नहीं मरता, उसे शस्त्र नहीं काट सकते, संवेदना नहीं मारती, स्पर्श और संवेदना हमारे प्राण हैं। प्राण शेष है तो अन्धकार भगेगा, आलोकपर्व फिर आयेगा।

     विश्वासहीनता, संवाद हीनता और संवेदनशुन्यता का यह दौर ज्यादा समय तक नहीं रहेगा। भावी पीढ़ी की बौद्धिक समझ सहयोग और तेज तर्रार वक्तृता शैली ही अपने सोपान पर चढ़ने में मदद देगी। समय नहीं गुजरता, इतिहास गुजर जाता है। हम नहीं गुजरते, अन्धकार गुजर जाता है। स्वभाव की स्वार्थपरता, व्यक्तिव का संकट, मन की दुर्बलता आदि अन्धकार के ही प्रकार हैं।

     अस्तित्व और आस्था के संकट अन्धकार में ज्यादा गहराते हैं, क्योंकि कमजोरी में दोष उभर कर सामने आते हैं। आस्थाहीन व्यक्ति का अस्तित्व हमेशा अन्धकार में रहेगा। स्वयं से टकरायेगा, विखंडित होगा और नष्ट हो जायेगा। लेकिन यदि प्रकाश मिल गया तो आस्था को बल मिलेगा । वह विखण्डन से बच जायगा। आस्था और अस्तित्व से लड़ने का यह बल भीतर से आत्मा से मिल सकता है। दर्शन, धर्म, ईश्वर, गोड, अल्लाह सभी अन्दर से प्रकाशित करते हैं। ज्योति पुंज स्वयं के अन्दर से प्रस्फुटित होते हैं।

     सन्त, महात्मा, पीर, पैगम्बर, भक्त, ऋपि - मुनि, ज्ञानी - ध्यानी सभी ने अपने अपने ढंग से अन्दर से उर्जा और प्रकाश प्राप्त किया। ‘ स्व ’ की उर्जा ही हमारे ‘ स्व ’ के निमित्त है। अपने भीतर की यह तलाश हमें हमेशा नये द्वारों की ओर ले जाती है, जो हमेशा आलोक की ओर खुलते हैं एक गहरी और अन्धेरी सुरगं से गुजरने का अहसास ही प्रकाश की खोज का अहसास है।

     खोज की पीडा़ सभी को सताती है। निरन्तर खोज निरन्तर पीड़ा देती है। सृजन की पीड़ा से कम नहीं। आविष्कार की पीड़ा भी अन्धकार से प्रकाश की ओर जाती है।

     आधुनिक विज्ञान के अध्येता भी मानते हैं कि तम को दूर करने के लिए मन से रोशनी मिल सकती है। तंत्र शास्त्रों में इसका उल्लेख है। विज्ञान की उपलब्धियों से कोई इनकार नहीं कर सकता, मानव जीवन को अनेको सुख सुविधाएं देता है - विज्ञान। भैतिक साधनों से हमारी आंखें चौंधिया गई हैं। और हमें एक नए प्रकार के अंधकार ने घेर लिया है। प्रगति के सौपानों पर चढ़ते चढ़ते हम अंधे हो गये हैं। समय की धारा को मोड़ने का साहस रखने वाला मनुष्य स्वयं ही खो गया है। अन्धकार को दूर करने का दायित्व भाषा कला, साहित्य से संबंधित व्यक्तियों का है जो नया सृजन कर रहा है उसे अन्धकार कब तक दबा सकता है। वह तो अन्धकार को चीरकर बाहर निकल जायेगा और पूरे वातावरण में आलोक भर देगा। माहौल में एक आलोकपर्व हो जायेगा। जीवन में नये मूल्यों की प्रतिष्ठान करना, मानव जीवन में वास्तविक मूल्यों का प्रकाश भरना ही वक्त की आवाज है। हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम सभी वर्गों को एक साथ करके पूरे जन मानस के चारों ओर छाए अन्धकार को दूर करें और आलोक पर्व मनाएं तो ‘ तमसो मां ज्योतिर्गमय ’ सच सिद्ध होगा।

     


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