अमर गाथा
अमर गाथा
एक संवाददाता अपने समाचार पत्र के लिए लिख रहा है ......
"दादा .... इस लकड़ी की पेटी में मेरे पापा क्यों सोये हुए हैं .... बताओ न दादा.... ये आंखे क्यों नहीं खोल रहे, माँ, दादी, बुआ सब क्यों रोये जा रहे हैं।"
पांच बरस का मोनू सवाल पे सवाल किये जा रहा है लेकिन बेबस असहाय लाचार से उसके वृद्ध दादा के पास कोई उत्तर नहीं है। उस अबोध को वो कैसे समझाये कि अब उसके सर से पिता का साया हमेशा - हमेशा के लिए उठ चुका है।
उपस्थित विशाल जन समुदाय "वीर तुम अमर रहो" के उदघोष के साथ समग्र वातावरण को राष्ट्रवाद की प्रबल भावना से गुंजायमान कर रहा है।
लेकिन अब ये एक दिन की बात नहीं है, रोजाना का सिलसिला बन गया है। शायद ही कोई दिन गुजरता है जब कोई बेटा देश के लिए कुर्बान नहीं होता।
ऐसा नहीं कि एक सैनिक अपने देश पे शहीद होना नहीं चाहता या शहीद होने से डरता है लेकिन ....इस तरह के कायरतापूर्ण हमले में मरना कोई नहीं चाहता। ये मृत्यु नहीं हत्या है, ऐसी मौत कोई भी नहीं चाहता।
उपस्थित सभी लोगों के मन में यही आक्रोश व्याप्त है कि आखिर हमारे जवानों की ये नृशंस और कायरतापूर्ण हत्याएं कब तक होती रहेगी ?
हम आतंकवाद के जहरीले नाग का सर कब कुचलेंगे ? राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी के कारण विगत तीस वर्षों से हम अघोषित युध्द का सामना कर रहें हैं और हमारे हजारों जवान शहीद हो चुके हैं।
पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ शहीद का अंतिम संस्कार किया जा रहा है। विशाल जन समूह अश्रुपूरित श्रद्धांजलि के साथ जय घोष के नारे लगा रहा है।
लेकिन .....एक पिता ने लाठी, माँ ने लाडला, बहन ने भाई, पत्नी ने सुहाग, मासूमों ने पिता और देश ने बेटा खो दिया .....
इस सत्ता लोलुपता ने देश का विभाजन कर डाला और कभी जो हमारा था आज उसे स्थायी दुश्मन बना डाला।
बात नहीं संवाद नहीं,अब प्रहार होना चाहिए। भारत माँ के वीर जवानों अब संहार होना चाहिए।
कितना आसान है राजनीति करना और कितना दुःखद है आतंकवाद में अपना बेटा खो देना। ये ताबूत नहीं अमर गाथाएं हैं जो वीरों ने अपने खून से लिखी हैं और जिनकी शान में तिरंगा भी नत मस्तक है।
