अमलतास की बेल!!
अमलतास की बेल!!
"कितना बोलती है यार तू, तू तो पागल कर देगी मुझे तेरे इतने सारे उल जुलूल सवालों के जवाब नहीं दे सकता में चल हम कुछ और बात करते हैं" उसने कहा।
हाँ ठीक है, अब मैं नहीं पूछती कुछ, पर सुनो।। हम ना वहां चलेंगे वो उस पहाड़ी पर, वहां लकड़ी की एक लम्बी सी बेंच पर मैं तुम्हारे कान्धे से सर को टिकाये देखूंगी सारे शहर को बूढ़ा होते, तुम चाय के कुल्हड़ ले आना और मैं मीर की गजलों से भरी किताब ले आऊँगी।
"जी साहिबा और कोई फरमाइश है तो वो भी अभी बता दे कोई फूल जैसे गुलाब का लेकर घुटनों पर बैठ कर इजहार करना है तो अभी बता दे" चिड़ाते हुए बोला।
अरे नहीं तुम्हें तो पता है ना...गुलाब नहीं मुझे तो मोगरा पसंद है!!
हाँ बस बस दो मिनट और तुझसे बात करूंगा तो तू तो पहले से पागल है, मैं भी हो जाऊंगा ये कहकर तुम उन वादियों से उस पहाड़ी से नीचे उतर आए। हाँ मैंने देखा था तुम्हें उस शहर की और उस शोरशराबे की ओर जाते हुए आखिरी बार!!
फिर तुम लौट कर तो आए नहीं सोचा तुम्हें बता दूँ, वो कुल्हड़ उसी लकड़ी के बेंच के हथ्थे पर पड़ी है आज भी। जिस बेंच पर बैठ कर तुम्हारे कांधे से सर को टिकाये सूरज को डूबते देखने की ख्वाहिश थी मेरी!!
सुनो!!
वो तुम्हारे चाय के कुल्हड़ के निचले सिरे पर हल्की सी दूब जम आई है, और हाँ वो बेंच उस पर ना अमलतास की बेल लिपट आई है।।

