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Kunwar Singh

Abstract

4  

Kunwar Singh

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अधूरी कहानी-

अधूरी कहानी-

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आज लग रहा है वापस जिंदगी ले जाती। काश! ये सोचना भी अब दर्द नही देता। सच है ना! जब जिंदगी अकेली हो, तो यही सब लगता है। 

जब तुम यहाँ आई थी। तब तक सब ठीक था, क्यों मालूम है ? 

कैसे पता होगा, नही पता है ना!

हम तो एक दूसरे को जानते ही नहीं है। और अच्छा है नही जानते है। और मैं बात ही नही करना चाहता हूँ। मुझे किसी पर अब भरोसा नहीं करना है। अभी तो उस दर्द भरी जिंदगी से आया हूँ और तुम कितनी खुशमिजाज हो, तुम्हें फ़िक्र ही नही है। जैसे अभी तो सुबह हुआ है और ये नीला आसमान जहाँ तक नीला दिखाई दे रहा है, सब तेरा ही तो है "चिड़ियों की आवाज सी" तुम इस तरह आई।

कुछ दिनों तक तो मैं दूर ही भागता था। 

अच्छा होता! कि तुमसे दूर ही रहता। 

पर तुम अच्छी हो बहुत अच्छी। तुम मुझे सुनती हो। मुझे सुनकर, तुम अपने साथ मुझे नीले आसमान में ले आई। 

पता है! तुम मुझसे जो बातें सुनी, वही मुझे तुमसे हो गया। पर तुम समझ नही सकती हो। क्योंकि तुम सुन सकती हो बस! और तुम्हें पता है तुम्हें सिर्फ सुनना ही है।

तुम कभी अहसास नही कर पाई कि मैं शोर सुन पा रहा हूँ। पर ये बता नही पाया कि ये शोर मुझे दर्द दे रहे हैं। और मुझे तुम छुपा लो! ये बोल ही नही पाया। क्योंकि मुझे डर था तुम भी छोड़कर चली जाओगी। हाँ, तुम भी!

हाँ! सब सुनकर, तुम चुप हो! सही भी है। पर एक डर है कि मैं खुदगर्ज हूँ ना! 

तुम मेरी हो! जैसे बस सुनाता रहता हूँ। 

"कही फिर से मैं चुप हो गया!" इसके बारे में सोचना कितना बुरा लगता हैं। 

पर पता है! तुम मुझे जिस तरह सम्हाली हो! 

वह बात किसी को बताता हूँ। तो उन्हें लगता है, मैं कैसे इतनी अच्छे से इन बातों को रखता हूँ। और वो उन्हें अच्छा लगता है। यह सब मुझे तुमने ही सीखाया है। और उन्हें लगता है मैं अच्छा हूँ। पर सच तो यह है कि तुम अच्छी हो बहुत अच्छी।

जब मैं तुम्हें बताता हूँ और तुम वह सुनकर चुप रहती हो। कोई जवाब नही देती हो, तो लगता है कि तुम्हें मेरे इस तरह की बातें दर्द देती है, दिल दुःख रहा होगा ना तुम्हारा भी। पर तुम बोलती नही हो। तो मुझे समझ ही नही आता है, तुम हो कि नही। और यह भी सोचना हुआ कि क्या सच यूँ बताना सही है।

हाँ, मैं तुम्हें आज भी नही जानता। पर तुम होती हो, तो लगता है मैं जिंदा हूँ। पर मैं ये तुम्हें नही बता सकता हूँ। क्योंकि तुम्हें ये बात पसंद नही है। तुम्हें पता है मेरी जिंदगी में ज़हर ही तो था और वैसे भी सच सुनकर कोई इंसान कैसे ज़हर पी सकता है। 

तुम सुनकर चुप हो। और तुम समझती हो मेरा मौन! 

पर पता है यह पूरा सच नहींं है। ये कभी खत्म हुआ ही नहीं है। जिंदगी के इस मंथन से सुबह हुआ ही नही है। क्योंकि ये एक काली रात की शोर है। मैं पूरी रात तुम्हें बातें बताता तो हूँ पर डरता हूँ।

काश! मैं तुम्हें जान पाता। तुम कौन हो?



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