Ashish Vairagyee

Tragedy

2.5  

Ashish Vairagyee

Tragedy

आज़ादी नहीं चाहिए

आज़ादी नहीं चाहिए

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वो रोज़ सुबह अंडे उबालती है, जूते पोलिश करती है, कपड़ों में आयरन करती है और ताला मार के जाती है उस कमरे में, जहाँ उसने अपनी सबसे क़ीमती चीज़ छुपाई हुई है। कमरे की सड़क से सटी दीवार पर एक खिड़की टँगी है जहाँ टँगी रहती है दो बेबस आँखें, मुझ साईकल पंचर वाले को घूरती हैं यूं कि मानो मैं कोई फरिश्ता हूँ आज़ादी का।

दो साल से अपने अंदर भरे हुए ग़ुबार को जब रोक नहीं पाया तो दौड़ के पहुंचा उस खिड़की पे। सहम कर दूर भाग गई वो छोटी बच्ची, जैसे मैं कोई शैतान, पिशाच हूँ अचानक मैंने उसकी आँखों में अपना बदलता स्वरूप देखा, देखा कि एक फ़रिश्ता कैसे शैतान बन जाता है चंद पलों में।

शाम को ताला खुला तो मैंने उस औरत का हाथ पकड़ लिया और दुनिया भर की गालियों और जहालतों से मढ़ दिया उसका माथा। वो भी पानी भरी थैली सा फट पड़ी और बोली," शौक़ नहीं है भैया मासूम बच्ची से आज़ादी छीनने का, मगर क्या करूँ, क़ैद में रखती हूँ कि महफूज़ रहे, शाम को आती हूँ तो तसल्ली रहती है पिंजरे में रख के गयी थी जिंदा तो होगी, गर आज़ाद छोड़ दिया तो गली के कुत्ते नोच न डाले उसे

भैया दिल्ली वाले कांड के बाद बहुत डर चुकी हूं, हमें ऐसे ही हमारे हाल पर छोड़ दो।"


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