आत्मा का नाद
आत्मा का नाद
‘मेम साब, आज अब्बी तक नहीं नहाई ? और दिनां तो सात बजे नहाना-धोना निपट रहिन।’ बाई ने कहा।
‘मंगो, कल रात मम्मी जी आई हैं न। सुबह से उनके काम में लगी हूँ – नहलाना-धुलाना, नाश्ता-पानी, कंघी-चोटी, अखबार पढ़कर सुनाना....यह सब करते-कराते दस बज गए।’ कुंतल ने कहा। काम निपटाने के लिए मंगो आगे बढ़ी तो कुंतल बोली, ‘मंगो, मेरी बात सुनकर तुमने बुरा-सा मुँह क्यों बनाया ?’‘मेम साब, बुरा तो नहीं मानोगी ? डर लगत रहिन, कहीं छोटा मुँह बड़ी बात न हो जाए।’
कुंतल ने आश्वस्ति दी, ‘बेधड़क होकर मन की बात कह डालो, मंगो।’ ‘मेम साब, हमरी माई हमेस कहत रहिन कि अपनी जनम देने वाली के लिए किए जान वाले कामों का कबी गीतब नहीं गाते। मुझे अइसा लगत रहिन कि आप जी ने तो पूरी पोथी पढ़कर ज्यादसी कर दी।’
कुंतल ने मुस्कुराकर कहा, ‘मंगो, मेहरबानी करके फिर-फिर कहती रहो यह बात, जब तक यह मेरी आत्मा का नाद न बन जाए।
