आश्रिता
आश्रिता


यह केवल एक तस्वीर नहीं है। जीती जागती एक हकीकत है। भूख और जरूरत जो न कराए वह थोड़ा है।
वह बहने हैं जिनका जर्जर बाप मौत के मुहाने पर पड़ा है। दुर्भाग्य से दोनों ही विधवा बन पितृ आश्रिता बन पुनः पिता के पास लौट आईं थीं। लेकिन वही आज उस वृद्ध एकाकी पिता के लिए आधार और सहारा बन कर उभरी हैं ।
क्या रोना ससुरे उन बीते हुए लाचार बंजर से पलों का जहाँ वह स्वयं को सुघड़ वधुएं साबित न कर सकीं।
ख़ुद को अबला महसूस कर जिस सहारे की ओर लपक आईं थीं उसका ही आज वह सशक्त सहारा
बनी हैं। जिस पिता ने उन कन्याओं के लिए सदा अपनी किस्मत को कोसा था और स्वर्ग के द्वार अपनी जिस लाठी पर गर्व से भरोसा किया था वही पढ़ लिखकर परदेश में बस गया था । माँ के बाद वात्सल्य लुटाती इन प्रौढ़ बहनों को बोझ समझ जो अपनी ही दुनिया में खो गया था वहीं ..आज भी पितृ मोह में फंसी ममतामयी इन नारियों ने अपने इस शेष परिवार के पेट की आग बुझाने को बिन बैलों की गाड़ी के जुए अपने कांधे पर धर लिए हैं जिसे वह सम्पूर्ण हौसले से खींचती हुई नजर आ रही हैं और वह आज किसी की भी आश्रिता नहीं हैं।