आरुणि की गुरुभक्ति
आरुणि की गुरुभक्ति
महाभारत में आरुणि की गुरू भक्ति की कथा आती है। आयोदधौम्य नामक एक प्रसिद्ध ऋषि थे। इनके तीन प्रधान शिष्यों में से एक शिष्य आरुणि था, जो पाँचाल देश का रहने वाला था। सभी शिष्य गुरु के आश्रम में रहते थे , विद्या अभ्यास करते थे और गुरुकुल का कार्य करते थे।
एक दिन बहुत वर्षा हुई, धान की क्यारियों की मेंड़ टूट गई। ऋषि ने अपनी शिष्य आरुणि को खेत पर भेजा और कहा," जाओ ,केदार(धान की क्यारी) की टूटी हुई मेंड़ (केदार खण्ड) को बाँध दो। "
गुरु की आज्ञा से आरुणि खेत पर गया ,, वहाँ मेंड़ बान्धने का प्रयत्न करने लगा,परन्तु बान्ध नहीं सका। मेंड़ बान्धने का परिश्रम करते करते उसे एक उपाय सूझ गया। उसने मन ही मन में कहा," अच्छा, ऐसा ही करूँ। "
वह क्यारी की टूटी हुई मेंड़ की जगह स्वयं ही लेट गया। उसके लेट जाने से वहाँ से बहता हुआ जल रुक गया।
कुछ काल के पश्चात ऋषि आयोदधौम्य ने अपने शिष्यों से पूछा-"आरुणि कहॉं चला गया?"
शिष्यों ने उत्तर दिया-" आपने ही तो उसे क्यारी की टूटी हुई मेंड़ बान्धने के लिए भेजा था। "
आचार्य आयोदधौम्य ने शिष्यों से कहा-" चलो हम लोग भी वहाँ चलें जहाँ आरुणि गया है। "
वहाँ जाकर आचार्य पुकारने लगे-" आरुणि ! तुम कहाँ हो वत्स! यहाँ आओ बेटा। "
गुरु का यह वचन सुनकर आरुणि उस क्यारी की मेंड़ से उठ खड़ा हुआ और आचार्य के समीप आकर विनयपूर्वक कहा-"भगवन! मैं यह हूँ, खेत से जल बहा जा रहा था ,जब मैं उसे किसी प्रकार नहीं रोक लगा तो स्वयं ही वहां मेंड़ के स्थान पर लेट गया था। इस समय आपकी आवाज़ सुनकर सहसा ही उस मेंड़ से उठकर आपकी सेवा में आया हूँ। मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। कहिये, क्या कार्य करूँ ?"
आरुणि के ऐसा कहने पर आचार्य ने उत्तर दिया-"तुम क्यारी की मेंड़ को विदीर्ण करके उठे हो, अत: इस उद्दालन(तोड़- ताड़)कर्म के कारण तुम उद्दालक नाम से प्रसिद्ध होओगे। " फिर कृपा दृष्टि से देखते हुए आचार्य ने और भी कहा," बेटा, तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है, इसलिए तुम्हारा और भी कल्याण होगा। सारे वेद और धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धि में स्वयं प्रकाशित हो जायँगे"।
अपने आचार्य का यह वरदान और आशीर्वाद पाकर आरुणि कृतकार्य हो अपने अभीष्ट देश को चला गया।
यही आरुणि उद्दालक के नाम से प्रसिद्ध हुए। कठोपनिषद् में इन्हीं अारुणि उद्दालक के पुत्र नचिकेता की कथा, है,जिन्होंने यम के पास जाकर उनसे आत्मविद्या के बारे में जाना ।छान्दोग्योपनिषद् के षष्ठ अध्याय में पिता आरुणि एवं उनके पुत्र श्वेतकेतु की आख्यायिका है जो आत्मतत्त्व के एकत्व की विद्या का सारतमत्व प्रदर्शित करने के लिये है। इन्हीं आरुणि उद्दालक के एक शिष्य कहोड़ थे, जिनसे उन्होंने अपनी पुत्री सुजाता का विवाह किया। सुजाता के पुत्र अष्टावक्र हुए, जिनकी 'अष्टावक्र गीता' प्रसिद्ध है। गुरु कृपा से आरुणि भी महान् ऋषि हुए ।
गुरु के प्रति सम्मान रखने से एवं उनके प्रति श्रद्धा रखने तथा कर्मशील बनने से शिष्य का कल्याण हुआ। शिक्षक की शिष्य के जीवन को सँवारने में बड़ी भूमिका है, वे शिक्षा और ज्ञान का अमूल्य उपहार शिष्यों को देते हैं, जिससे उनको जीवन में सब प्रकार की सफलता मिलती है।
