आपबीती

आपबीती

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मुझे रोज बहुत मेल मिलते हैं कि मुझे लिखने की शक्ति कहाँ से मिलती है ? आप सभी के क्यों और कैसे का जवाब आज मैं अपनी आपबीती से जरूर दूँगी तो दोस्तो ! जब से याद सम्भाली तब से लिख रही हूँ। बचपन में जब सामने किसी दुखी, बीमार, गरीब, विकलांग भिखारी को देखती तो दिल रो पड़ता था क्योंकि उन दिनों हम भी बहुत गरीबी से जूझ रहे थे और बड़ी मुश्किल से गुजर होती थी तो किसी जरूरतमंद की कैसे मदद करते ? मगर मन बहुत करता कि उनको सीने से लगा लूँ। फिर कुछ सोचकर, एक काम करती कि कॉपी पर एक कहानी लिखती, उनको कहानी का पात्र बनाती और खुद को सुपर हीरो बनाकर उनको ढेर सारी खुशियाँ दे डालती और उनको अमीर और अच्छा इंसान बना देती, लिख डालती।

एक दिन एक बहुत बीमार बाबा को खाना तो दे आयी पर उनकी खाँसी के लिये मेरे पास कुछ नहीं था। मैं तुरन्त घर आयी और कहानी में मैंने उन बाबा को बिलकुल ठीक कर दिया। बचपन ही था जो मुझे उस वक्त ठीक लगा सो कर दिया। लगभग दो-तीन दिन बाद वो बाबा दिखे और बोले बेटा तेरे टिफिन के खाने में जादू था, मैं ठीक हो गया और हाँ रात को सपने में कोई आया जिसने मुझे सीने से लगा लिया भगवान थे शायद। मैं देखो बिल्कुल ठीक हो गया। यह बात सुनकर मैं चौंक गयी बिल्कुल मेरी कहानी वाला सुुपर हीरो जो सीने से लगाकर हर दर्द से मुक्त करने वाला था। ताज्जुब था कि जो लिखा वो सच हो गया। ऐसा कई बार हुआ तो एक अनजाने डर से कहानी लिखना बन्द कर दिया।

समय बीता और जब लोगों की बनावटी मुस्कुराहट देखती तो मन नहीं मानता, कलम लिखने पर मजबूर हो जाती। तो फिर से लिखना शुरू किया और बहुत लिखा। ताज्जुब था कि मेरे ही एक परिवारी जन को मेरा लिखना अच्छा नहीं लगा। उनको मुझसे जबरदस्त ईर्ष्या और जलन थी। उनको हमेशा यह डर लगा रहता था कि कहीं इस गंवार लड़की सारी दुनिया में नाम न हो जाये। कहीं मैं उनसे ज्यादा धनवान न हो जाऊँ और उनकी इस चिढ़ ने कब नफरत का रूप धारण कर लिया ये तो उनको भी शायद पता नहीं चला। फिर तो उन पर मानो राहू सवार हो गया। और एक दिन उनकी ये जलन सारी सीमा लाँघ गयी। फिर उन्होनें प्रसाद में नशा खिलाकर अपना मन पूरा भी कर लिया। मैं हल्के बेहोशी मैं थी और उन्होनें मेरे हाँथ की नश काट कर मुझे मारने का पूरा प्रयास कर डाला और कहने लगीं कि मर गयी तो कह देंगें होगा किसी के साथ चक्कर-वक्कर। बाद में बदनामी भी ब्याज में, बहुत बढ़िया।

मैं अपना रक्तरंजित हाथ देख बुरी तरह घबरा गयी कि आखिर ! मेरा दोष क्या है। बस मैं नारायण नाम की शक्ति को मन में ले भागी। हद तो तब हो गयी जब उन्होनें हमारी लिखी रचनाओं की पूरी सौ नोटबुक आग में स्वाहा कर डालीं। वो नोटबुक नहीं मेरी आत्मा का संगीत था जिसको अग्नि देवता को पूरी तरह भेंट किया जा चुका था। ये वो दु:ख था जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी ।ये बात हम भलीभांति जानते थे पर इंसान की जान और सम्मान से बड़ा कुछ नहीं होता बस यही सोचकर हमने उस व्यक्ति को हृदय से माफ कर दिया।क्योंकि मैंने सोचा कि माफ कर देने से मेरी पढ़ाई-लिखाई की यात्रा का मार्ग अवरूद्ध ना हो। माफी में शांति है और शांति ही सही हल था, उस समय।

बस दोस्तों ! किसी तरह उनके मनसूबे कामयाब न हो सके। फिर हमने वो स्थान छोड़ दिया और किराये के घरों में भटकते रहे पर कभी बदले की भावना को खुद पर हावी न होने दिया और खून में सने हाथ पर रूमाल बाँधकर कैमिस्ट्री का प्रेक्टिकल दिया जाकर और सफल हुई पर दोस्तो ! विपरीत परिस्थितियों में भी लिखना बन्द नहीं किया और आज भी लिख रहीं हूँ। मैं यही कहूँगी कि जब कटा हाथ तो और भी सध गया हाथ क्योंकि दर्द भी नहीं जख्म भी नहीं, हाँ ये निशान हैं जो प्रेरणा बन गये कि लिखते रहो। अरे ! हाथों में रेखायें तो सबके होतीं हैं । हमारे तो कलाई में भी रेखायें बन गयीं। ये तो ढ़ेर सारी रेखायें हैं पर शांति की अपार सम्भावनाओं की। ये रेखायें हमारी ढ़ेर सारी वैचारिक क्षमतायें हैं जिसको कह सकते हैं सकारात्मक ऊर्जा की रेखायें।

हम यही कह सकते हैं कि आज जो मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट है वो मेरे इन्ही प्रिय विरोधियों के कारण है । अगर कभी जीवन में सफल होतीं हूँ तो सफलता का पहला श्रेय मेरे प्रिय विरोधियों कसम से आपको ही जाता है। बस उस दिन का इंतजार है जब हम भी शुरूवात करेगें एक शुभ दिन की यानि शुभ विरोधी दिवस (हैप्पी एनिमी डे) की जिसमें बतायेगें कि जीवन की बड़ी सफलताओं में विरोधियों का अहम योगदान होता है। मेरे प्रिय विरोधियों मैं आपको हर-पल याद रखती हूँ।

दोस्तों ! हमेशा याद रखो कि हमारे जीवन में दु:ख किसी गुरु से कम नहीं और दर्द ही हमारे सच्चे अध्यापक सिद्ध होते हैं।


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