आखरी चाहत
आखरी चाहत
'जरा देखो, शाम कितनी खूबसूरत लग रही है।' तुमने आवाज़ लगाई तो मैं तुम्हारी ओर देखने लगी। तुम बालकनी के रेलिंग से हाथ टिकाए खड़े थे।
मैं जाकर पीछे से तुमसे लिपट गयी और अपनी ठुड्डी तुम्हारे बलिष्ठ कन्धों पर टिका कर उस ओर देखने लगी। पश्चिम में ललछौंही डोरे बिखरे हुए थे।
शाम के आलिंगन में कसा क्षितिज शर्म से सुर्ख स्वयं में ही सिमटते जा रहा था, और मई की तपती दोपहरी से सूरज विदा ले रहा था।
पहले मुझे डूबते हुए सूरज को देखना पसन्द नहीं था।
न जाने क्यों ये मेरे मन को उदास कर जाता था, पर उस शाम वो सचमुच सुहानी लग रही थी, मैं तुम्हारे बाहों में जो थी। ऐसी कितनी ही चीजें जो पहले मुझे खिन्न कर जाती थी, तुमसे मिलने के बाद मुझे हँसाने लगी थी। हम देर तक यूँ ही तीसरी मंजिल के बॉलकनी में खड़े उस सुहानी शाम को निहारते रहे।
'चलो, कहीं घूम आते हैं।' मैंने कहा तो तुमने मुस्कुरा कर मेरे माथे को चूम लिया हम नीचे सड़क पर आ गए। सूरज के डर से कहीं दुबके लोग शाम की लालिमा देख रोजमर्रा के काम से अब निकलने लगे थे। सड़कों पर रौनक लौट आई थी। वो छोटा सा शहर हमसे बिल्कुल अंजान था। सैकड़ों के भीड़ में हम सिर्फ एक दूसरे को पहचानते थे। मैं बड़ी बेफिक्री से तुम्हारा हाथ थामे चल रही थी, मेरे लिए तुम्हारा यूँ महकता साथ सबसे बड़ी नेमत थी। मैं ललचाई आंखों से शहर को देख रही थी और तुम ..मेरे चेहरे पर तैरती सुकून को। शहर अपनी रफ्तार से भागने दौड़ने में लगी थी, पर हम एक-एक पल को जी रहे थे। चलते-चलते सड़क के किनारे एक बड़ा सा तालाब आया, स्ट्रीट लाइट के रोशनी से नहायी उसकी मद्धिम लहरें झिलमिला रही थी। 'ऐसी शाम मैंने पहले कभी नहीं देखा, क्या वक़्त यहीं ठहर नहीं सकता ?' मैंने कहा। पल भर के लिए मेरे अंदर कहीं, इस शाम के बीत जाने का भय टहलने लगा था।
तुमने हाथों की कसावट कुछ और बढ़ा दिया, मेरी आँखें तुम्हारे चेहरे पर आ टिकी, और मैंने उस डर को उसी क्षण परे धकेल दिया।
मुझे वो दिन याद हो आया, जब तुमने मुझसे प्रेम-निवेदन किया था। मैं तो पहले से ही तुम्हें पसन्द करती थी पर अपने जीवन की उस एक सच्चाई के आगे मैं असहाय थी। मैं तुम्हें कुछ नहीं दे पाऊँगी, मेरे पास मेरा सिर्फ ये साल है।' मैंने कहा था। सुनकर पल भर के लिए एक उदासी सी तुम्हारे चेहरे पर आई पर अगले ही पल तुमने मुझसे वो एक साल माँग लिया
। 'इस एक साल में मैं एक सदी जी लूँगा।' तुमने मेरा हाथ थामते हुए कहा था।
हम दोनों ही जानते थे कि हम हमेशा यूँ साथ नहीं रह सकते पर हमने कभी इस एहसास को अपने प्यार के बीच आने नहीं दिया। उस एक साल में तुमने मुझे वो खुशियाँ दी, जो मुझे सात जन्मों में नसीब न होती। तुमने मेरी चाहतों को अपना मुकद्दर बना लिया था। हम जब भी मिलते तुम मुझसे मेरी कोई चाहत पूछ लिया करते, और हमारी अगली मुलाक़ात में वो तुम पूरा कर जाते।
मैं जानती हूँ, अगर किसी रोज मैं कह देती कि मैं तमाम उम्र तुम्हारी बाँहों में गुजारना चाहती हूँ, तो तुम सारी दुनिया से लड़ जाते। पर मैंने ऐसा नहीं कहा,
मैं चाह कर भी कभी ऐसा नहीं कह पाई। उस अंजान शहर में भी हम उस रोज मेरी एक चाहत पूरी करने ही तो गये थे। सात दिन पहले ही जब गुलमोहर के फूलों की बिछी लाल चादर पर मेरे आँचल पर सर रखे तुम लेटे थे और मैं तुम्हारे बालों को सहला रही थी, तब मैंने कहा था।
'इस बार मेरा जन्मदिन मैं तुम्हारी बांहों में मनाना चाहती हूँ।' उस रोशनी में नहाए तालाब के झिलमिल में तैरता, तट के मुस्कुराते पेड़ों की छाया में मैं तुम्हारा अक्स देखने लगी और तुम उसके उपर छा जाने को आतुर चाँदनी में मेरी परछाई को अपलक निहार रहे थे। मैंने अपना सर तुम्हारे कंधे पर टिका दिया, और हम चुपचाप कुछ पल यूँ ही ठहरे रहे। 'चलो तुम्हारे लिए कोई बर्थडे गिफ़्ट देखते हैं।' तुमने कहा तो मैं तुम्हारी आँखों में देख मुस्कुरा दी।
मेरी पलकें उस पल कुछ नम सी थी, तब तुमने 'पगली' कह के मेरे सर पे हाथ फेरा था। जब भी तुम ऐसा करते थे, मैं निहाल हो जाती थी। हम उस अंजान शहर के एक दुकान पर थे। मैं देर तक साड़ियों के ढेर में उलझी हुई थी, और तुम मुझे देख कर मुस्कुरा रहे थे। जब मैं लाचार आंखों से तुम्हारी ओर देखी तो तुम उठे और एक साड़ी मेरे आँचल से लगा कर मुझे आईने के पास ले गये। उस पर अब तक मेरी नजर ही नहीं गयी थी, तुम्हारे प्यार सा ही वो भी सचमुच लाजवाब थी। वो साड़ी आज भी मेरे वार्डरोब पर तुम्हारे प्यार को संजोए सजी हुई है। जब भी तुम्हारी यादें पलकें भिगा जाती है, उसे अपने तन पर लपेट लेती हूँ और महसूस करती हूँ, तुम्हारे बाहों की कसावट को।
उस रात मेरे जीवन की आखिरी चाहत तुमने पूरा किया, बारह बजे के अगले ही सेकंड जब तुमने मुझे मेरा बर्थडे विश किया तब तमाम दुश्चिन्ताओं से परे मैं तुम्हारे बांहों में थी।