1983 में हुजूम
1983 में हुजूम
“खोल , दरवाज़ा खोल बे.."
"रब नु सौगंध, आज पंजाब देखेया युद्ध मोर्चा की होवेया"
भीड़ के लात घूंसे दरवाज़े, किवाड़ पे मूसलाधार बरस रहे थे। एक गुर्राया, "बाहर से ही मकान फूँक दें क्या ?"
हाथ में तलवार लिए बाकी बोले,"नहीं रे, हुकूमत को खौफ़ के साथ साथ अपना मक़सद भी तो बताना है "
"बाहर निकाल कर काटेंगे इन हिंदुओं को, ये साड्डी ज़मीन है"
ज़ोर से हुंकारी भरी सबने, "जो बोले सोनिहाल !!!!"
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तांगे वाला हांकते हुए धीमे धीमे गाना गुनगुना रहा था :
"इक कुड़ी जिहदा नाम मुहब्बत ग़ुम है
ओ साद मुरादी, सोहनी फब्बत
गुम है, गुम है, गुम है"
"शायर बटालवी साब का भी कोई जवाब नहीं था", कहकर तांगे वाले ने घोड़े की लगाम खींची।
तांगे में पीछे बैठे फिरदौस और उसकी बीवी फ़ातिमा ने एक दूसरे को छोटी सी मुस्कान दी और फ़ातिमा ने सर पे कपड़ा खींच लिया। फ़ातिमा के लंबे काले बालों को फ़िरदौस अक्सर जी भर देखता और चोरी छुपे संवारता भी रहता। पंजाब के एक छोटे से गाँव अत्तेपुर में सिक्ख-पंजाबी देख-रेख में रहते रहते फ़ातिमा भी कुर्ता सलवार ही पहनने लगी थी। सर पे एक सूती कपड़ा ओढ़ा था और गोदी में चार बरस का बच्चा लिटा रखा था।
तांगे वाले ने पूछा, "बस अड्डे से आगे कहाँ जाओगे पुत्तर ?"
फ़िरदौस मिमयाया, "जी...जी वो… अमृतसर"
फ़िरदौस गला साफ़ करके बोला, "बंटवारे के बाद हमारे एक जान-पहचान वाले वहीं आ गए थे, काम धंधे के वास्ते बुलाया है, यहां अत्तेपुर में तो दाना पानी नसीब होना बहुत मुश्किल है"
तांगे वाले ने पीछे मुड़कर हामी भरी और फिर से गाना गुनगुनाने लगा। वही पांच छह सवारियां एक दूसरे से गल्लां करतीं दोपहर काट रहीं थीं।
तांगे वाले ने तांगा एक किनारे वाली छोटी सी दुकान पे लगाया और बोला,"ओ जी, मैं बस बीजी से सरसों लेके आया, तब तक आप लोग भी कमर सीधी करलो"
दुकान पे छप्पर के नींचे तीन लोग अख़बार हाथ में लिए बड़ा गर्मा गर्मी कर रहे थे। सवारियों ने उतर कर पूछा तो पता चला अमृतसर में मार काट मची है। लोग तो ये कह रहे थे कि बस अड्डा भी घेर लिया है अकाली धर्मयुद्ध वालों ने। दुकान वाली बुढ़िया सब सुनती रही फिर "रब राखां" कहकर स्टोव सुलगा दिया। सवारियों में खामोश दहशत पैदा हो रही थी। फ़िरदौस ने फ़ातिमा और अपने चार साल के बेटे की तरफ देखा लेकिन फिर ख़्याल आया कि वापस लौटने को अब अत्तेपुर में कुछ भी नहीं बचा। ले देके एक ही पोटली की संपत्ति है, सो संग है। और दूसरी तरफ़ अमृतसर में नई ज़िन्दगी इंतेज़ार कर रही है। फ़िरदौस ने जिगर मज़बूत किया और कहा, "हम अब वापस नहीं जा सकते, प्राजी हमको तो बस-स्टैंड ही छोड़ दो, वहां से ठिकाना नज़दीक ही है"।
तांगे वाले ने उसकी हालत देखी, अपनी पगड़ी ठीक की और बोला, "बैठो तांगे विच, मैं अमृतसर ताँ छोड़ दूंगा सई सलामत"।
यहां सूरज डूबा और वहां अमृतसर आ गया। तांगे वाले सरदारजी ने फ़िरदौस के हाथ में अपना कड़ा देकर बोला, "रब राखा" और फौरन निकल गया।
फ़िरदौस अपने साथ अपनी डेढ़ जान लिए गलियों में से छुपता फिरता सरकता रहा। चारों तरफ लोग भाग रहे हैं, जहाँ देखो वहां नीले काले झंडे लहरा रहे हैं। कभी रूह चीरता सन्नाटा था तो कभी अचानक तेज़ाब की बोतल फूटने का शोर। बड़े शहर में कयामत भी बड़ा रूप लेकर आती है। फ़िरदौस ने बेटे को गोद में उठाया और फ़ातिमा मुँह छुपा कर पीछे पीछे दौड़ने लगी। अंधेरा धीमे धीमे शहर को आगोश में ले रहा था। हुजूम को अंधेरा लगता तो किसी न किसी का घर फूँक देते, जल उठता मोहल्ला फिर।
एक कचरे वाली पतली गली दिखी तो दोनों उसमें सरक लिए। एक जलते टूटे घर के रोशनदान से आग का उजाला उस पतली गली में बिखर रहा था। दोनों दबे पांव चलने लगे। फ़िरदौस फुसफुसाया, "शायद अगली ही गली थी, कुछ याद नहीं आ रहा ठीक से, अब्बा के दोस्त का घर है, ख़ैर इस गली को पार करके देखते हैं।"
कचरा पैरों से दबाते दोनों आगे बढ़ रहे थे। फ़ातिमा का पैर किसी गोल चीज़ पे पड़ा, फिसलते फिसलते बची, फ़िरदौस ने हाथ पकड़ लिया। नीचे झुककर देखा तो खून से लथपथ हाथ था, उंगलियां ऊपर को उठी थीं। फ़ातिमा ने फ़ौरन मुँह में चुन्नी ठूँस ली और फ़िरदौस ने गमछे से बेटे का मुंह छुपा लिया। सदी के जैसी लंबी कटी वो गली।
अचानक फ़िरदौस की नज़र ऊपर चबूतरे चढ़ते घर पे पड़ी। दरवाज़े पर टँगी तख़्ती पर लिखा था, 'हरी राम सिंह'। फ़िरदौस ने कसकर फ़ातिमा का हाथ दबोचा, आँखों से हामी का इशारा किया और दोनों झट से घर के अंदर दाख़िल हो गए। एक पुराना सा दरवाज़ा और बाप की बाहों सा फैला आंगन, आमने-सामने कमरे, किनारे से एक गली और ऊपर चढ़ता जीना। ठीक वैसा ही जैसे फ़िरदौस के अब्बू बयाँ करते थे कि "भई मेरे यार हरीराम की कोठी है अमृतसर में, लेके चलूंगा कभी।"
ख़यालों की ठिबरी फूटी और बदन में होश बिखर गया। उन्हें एहसास हुआ जैसे अब जाकर वो ज़िंदा हैं, गली में तो उनके मुर्दा शरीर चल रहे थे। उन्हें एहसास ही नहीं हुआ कि उन दोनों के कपड़ों पर दीवार की कालिख़ लग गयी थी। घर में नज़र दौड़ाई पर कोई नज़र न आया, दबे स्वर में एक दो आवाज़ भी लगाई, "चचा,, चचा"। टोंटी खोली तो पानी नहीं था पर बाहर से पानी गिरने की आवाज़ आ रही थी। फ़िरदौस ने खिड़की से बाहर झांक के देखा तो छत से परनारा बह रहा था।उसने बेटे को गोद से उतारकर एक लकड़ी की कंडिया पर बिठाया और दरवाज़े की कुंडी लगाई। जीने की तरफ झांक कर बोला, "टंकी का पाइप निकला मालूम होता है, मैं देख कर आता हूँ, जीने का दरवाजा भी लगा आऊंगा, कहीं कोई छत से न घुस आए"। बाहर गली में नारे लग रहे थे, चीखों के, कराहों के, आंदोलन के। सारी जिंदगी फ़ातिमा को अपना गांव अत्तेपुर इतना याद नहीं आया जितना इस वक़्त आ रहा था। फ़िरदौस ऊपर जीने की जानिब दौड़ गया।
छत पर फेंकी हुई तेज़ाब की बोतल झुलस रही थी। बगल में पत्थर पड़े थे, और टूटी पाइप टंकी से निकली पड़ी थी। फ़िरदौस एक झलक पानी को देखता और फिर बोतल की आग को। उसके ख़्वाब और हकीक़त में भी इतनी ही दूरी थी।
फ़िरदौस छत पे लगी आग बुझाने में मशगूल हो गया।जितनी जल्दी कर सका पाइप जोड़ कर, दरवाज़ा लगा कर नीचे की तरफ दौड़ा।
जैसे ही कमरे में दाख़िल हुआ तो होश फ़ाख्ता हो गए, सांस खिंच गई,दिल फट गया हो जैसे। फ़ातिमा सामने ज़मीन पे पड़ी थी, और बेटा नज़र नहीं आ रहा था।
सहमे कदमों से करीब आया तो देखा, गर्दन से खून का फब्बारा फूट रहा था, पीछे वाला दरवाज़ा खुला पड़ा था, सामान बिखरा था। फ़िरदौस समझ नहीं पा रहा था कि उसकी दुनिया किस धर्मयुद्ध की चपेट में आ गई। क्या इसी को दंगे कहते हैं कि बस दरवाज़े की तख़्ती पे नाम पढ़ो और किसी का भी गला रेंत दो। फ़ातिमा शायद "अल्लाह" भी न कह पाई होगी गुट के आगे। भीड़ के सर खून चढ़ा हो तो उनके पास आधार कार्ड देखने का वक़्त नहीं होता। फ़ातिमा का पटियाला सलवार-कुर्ता ख़ून से पुता पड़ा था।
फ़िरदौस की नज़र लकड़ी की कंडिया पे गयी, खोल के देखा तो बेटा आंखें फाड़े बेहिस्स था, पूरा ठंडा पड़ गया था उसका बदन। उसकी आँखों में पसरा खौफ़ सारा मंज़र बयाँ कर रहा था। जब तक उसे गोदी में लेने को हाथ बढ़ाता, सामने वाले दरवाज़े पे ज़ोर ज़ोर से ठोकने की आवाज़ें आने लगीं।
"खोल , दरवाज़ा खोल बे.."
"रब नु सौगंध, आज पंजाब देखेया युद्ध मोर्चा की होवेया"
भीड़ के लात घूंसे दरवाज़े, किवाड़ पे मूसलाधार बरस रहे थे।
एक गुर्राया, "बाहर से ही मकान फूँक दे क्या ?"
हाथ में तलवार लिए बाकी बोले,"नहीं रे, हुकूमत को खौफ़ के साथ-साथ अपना मक़सद भी तो बताना है"
"बाहर निकाल कर काटेंगे इन हिंदुओं को, ये साड्डी ज़मीन है"
ज़ोर से हुंकारी भरी सबने, "जो बोले सोनिहाल !!!!"
फ़िरदौस बच्चे को ज़िंदा देखकर हरकत में आ गया। बच्चे को उसी कंडिया में छुपाकर ढक्कन लगा दिया। दौड़कर पीछे वाला दरवाज़ा बंद दिया। हुजूम सामने का दरवाज़ा तोड़ने को उतारू थी।
मिनटों में बाहर के फाँटक की कुंडी टूट गयी। भीड़ आंगन चीरती हुई कमरे के दरवाज़े को ज़ोर से लात मार कर खोलती है, दरवाज़ा आधा खुलकर रुक जाता है।
दरवाज़े के एक तरफ़ दर्जन भर तलवारें और सर पर बेहिसाब वहशत लिए अकाली सिक्ख। और दूसरी तरफ़ एक पुराने आईने के सामने खड़ा पगड़ी बांधता सरदार। आधे बाल खुले बाहर लटकते, आधे पगड़ी के अंदर, हाथ में झूलता कड़ा। कुछ पलों का जानलेवा सन्नाटा। पग का कपड़ा चेहरे से हटा कर आंखों में गहरी आँखे उतार कर बोला, "किरायेदार" !
भीड़ में आगे वालों ने दांती भींची और मुड़ कर चले गए। आगे कुछ न देखा। किसी ने भी न देखे उसके कंपकपाते हाथ, आंखों से बहता लहू और दरवाजे के पीछे पड़ा कटे बालों वाला फ़ातिमा का ज़र्द शरीर जिसकी चुन्नी फ़िरदौस के सर का पग थी। किसी ने कुछ न देखा। बस सब कुछ अगर किसी ने देखा तो उस कंडिया के अंदर छुपे उसके चार साल के बेटे ने….सब कुछ, अपनी आंखों के सामने।
