यश
यश
चाहत जो यश की मन में नर, कर्म सदैव सुकर्म बनाओ।
कारक है यश का खुद मानव, सादर सुंदर हे नर पाओ।
देह सनातन है नहि मानव, पूर्ण सनातन तो यश होता ।
पाकर पावन को जग में नर, छा यश के बल विश्व सजाओ॥१॥
मान समान कहाँ धन है नर, मान सदा यश से तुम पा।
वेग अनंत धरे यश पावन, जाग इसे जग में बिखराओ।
ठौर न शेष रहे जग भीतर,ठौर जहाँ यश ने न किया हो।
जीवन बीत चले तव भी पर, भू पर ही यश काय सजाओ।