उलझन
उलझन
क्यों तू हताश है,
किसकी तुझे तलाश है।
कहां है मंजिल तेरी
चला तू किस और है।
क्या है उलझन तेरी
बढ़ रहा क्यूं यह शोर है।
प्रशन का मंत्र जाल है
जो तू इस तरह बेहाल है।
क्या है चाहत तेरी
बस यही सवाल है।
सोचता है सबकी तू
यही तो बस बवाल है।
टूटा बिखरा असमर्थ नहीं
बस यह तेरा ख्याल है।
गिर गया जो राह में
तो क्यों गिरावट है चाह में
बांधे तुझको बेड़ियां
किसमें इतना ज़ोर है
भूल मत हर निशा
के बाद ही तो भोर है
दूर नहीं मंजिल तेरी
ध्यान दे !!!
यह तेरे ही विजय घोष का शोर है।