तुम
तुम
सुनो
तुम जब भी मुश्किलों में मेरे
संग खड़े रहे।
तुममें मुझे एक पिता की छवि
नजर आई।
क्योंकि तुम्हारे होने से सुरक्षा का
एहसास गहराया।
क्योंकि पिता को ही मैंने अपने
अँधेरे जीवन में एक जुगनू समझा।
सुनो,
जब भी तुमसे मेरी नोंक झोंक
लड़ाईयाँ हुई।
तुमसे हार कर भी जितने का
प्रयास किया।
और तुमसे जीत कर भी मैंने
हार जब स्वीकार किया।
तब मुझे तुममें अपने भाई
की छवि नजर आईं।
जिससे लाख बार लड़ने झगड़ने
के बावजूद भी
बार बार फिक्र ख्याल परवाह
मन में आता है।
जब भी कोई विकल्प नही समझ
आता
तुमसे अपने मन की उलझन
मन की पीड़ा
मन की व्यथा
सारे कह देती हूँ
तब मुझे तुम मेरे एक मित्र लगते हो
एक विश्वनीय मित्र
जिस पर मैं आँख बंद कर
भरोसा कर सकूँ।
हर रूप में तुमसे प्रेम,
तुम ही प्रेम,
परंतु प्रेमी के रूप में
स्वीकारना थोड़ा भयभीत करता।
सामाजिक वर्जनाओं,
सामाजिक मान्यताओं,
सभी का बोझ नाजुक कंधे पर होता।
इसलिए सिर्फ तुमसे रहे रिश्ता
इंसानियत का,
प्रेम का,
स्नेह का,
आदर का,
बस यही दिल ,दिल से हर बार कहता।