तुम कहाँ...हम कहाँ..
तुम कहाँ...हम कहाँ..
जब तुम्हारा मन शहर के चकाचौंध में खो रहा था,
इमान सिर्फ धन दौलत का हो रहा था,
तब मैं पहाड़ की गोद में सर रखकर सो रहा था।
मस्तिष्क में शांति के बीज मैं बो रहा था,
साथ ही मैले मन को भी धो रहा था।
अपने पैसे पे जब तुम अकड़ रहे थे,
और एक दूसरे को देखकर सड़ रहे थे,
हम इंसानियत को खुद में गढ़ रहे थे।
क्या होती सच्ची खुशी ,हम ये पढ़ रहे थे,
धीरे धीरे ही सही लेकिन, हम भी आगे बढ़ रहे थे।
पैसे की अकड़ में, कर दी तुमने ये भूल,
खुद को समझा राजा, बाकी मिट्टी और धूल,
ना कोई सिद्धांत तुम्हारे ना कोई उसूल।
सोच तुम्हारी सूक्ष्म और विचारधारा मेरी स्थूल,
मंत्र की बात तो दूर तुम खुद ना रह पाए मूल।
है शोहरत इसलिए तुम्हारे पास है जनता,
पर उनकी भी सोच है कि अपना काम बनता,
जिसे तुम समझते रहे अपनी तारीफ।
असल में है वो लोगो को चापलूसी,
क्योंकि तुममें देख रहै हैं वो राजस्व दौलत और धन।
बंगला, गाड़ी और पैसे से तुम अमीर बन गए,
पर सच्चाई और ईमानदारी के खून से तुम्हारे हाथ सन गए,
हमारी आर्थिक स्थिति पर हमें पिछड़ा कहते,
हम पर हँसते, दिखाते रौब अपने धन का
तुम इमारत में रहने वालों ,क्या जानों सुख वन का।
तुम्हें लगा तुम कामयाब हो गए,
और हम वहीं के वहीं रह गए ?
असलियत की आँखों से देखो मेरे दोस्त,
हमने अंबर छू लिया,
और तुम पाताल में ही ढह गए।।
