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Nand Lal Mani Tripathi pitamber

Inspirational

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Nand Lal Mani Tripathi pitamber

Inspirational

टुटा सागर का अहंकार

टुटा सागर का अहंकार

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सागर तट पहुंचे

रघुबीर संग सेना

बानर और रीछ।।


लंका पहुंच पाना 

समस्या विकट गम्भीर

सागर में कैसे हो पथ 

निर्माण कार्य कठिन।।


प्रश्न बहुत जटिल 

विभीषण जामवंत 

लखन संग मन्तव्य 

रघुबीर ।।


सागर से ही 

मांगे पथ करे स्वंय विनम्र

निवेदन रघुबीर।।


लखन लाल क्रोधित

रास नही मन्तव्य 

शेष भृगुटी तनी

धरे रूप रौद्र।।


बोले सुनो भईया 

जड़ का चेतन 

संस्कार नही

सागर जड़ है करो 

निवेदन वंदन उचित

व्यवहार नही।।


धनुष उठाओ

प्रत्यंचा चढ़ाओ 

सागर को नीर विहीन

करो ।।


लंका पथ स्वंय

मिल जाएगा युग

परिहास नही होगा।।


आने वाला काल समय 

मर्यादा पुरुषोत्तम की

युग मे महिमा का यश गान 

करेगा रघुकुल का

शौर्य ध्वज लहराएगा।।


बोले धैर्य धीर गम्भीर

रघुवर रघुबीर सुनो भ्राता 

लखन विनम्र अनुनय

निवेदन वंदन पराक्रम 

तरकस और तूणीर।।


बैठेंगे सागर तट पर

सागर का आवाहन कर 

उसकी इच्छा से ही लंका

पथ पाएंगे ।।


सागर ही पथ प्रयास 

परिणाम प्रथम पथ 

विजय दिखलाएगा

लंका विजय से अपनी

कीर्ति मान बढ़ाएगा।।


लखन लाल का क्रोध 

शांत नही भ्राता आदेश 

से विवश शांत हुआ

रणधीर ।।


पूजा वंदन कि थाल

लिए सागर तट पहुंचे रघुवीर

ध्यान मग्न सागर अर्चन वंदन

पर बैठे शांत शौम्य सूर्य बंसी

धैर्य धीर वीर रघुवीर।।


देख रहे थे प्रभु लीला

को बानर भालू रीछ

लक्ष्मण और विभीषण

सबकी यही परीक्षा और

प्रतीक्षा।।


सागर के आने और पथ

लंका पाने की पूरी हो

लंका विजय प्रतिज्ञा।।


रघुबर की सागर मनौती

विनय आराधना काम न 

आई दिवस बीत गए तीन

टूटा ध्यान जागे क्रोधित

रघुवीर।।


बोले सकोप लखन 

लाओ धनुष सारंग हमारा

आज सोखेऊ सागर नीर।।


सागर अहंकार मैं तोड़ू

युग मे सागर मर्यादा झिन्न

भिन्न मैं कर देंऊ ।।


सागर को कैसा अभिमान 

पता नही जड़ को 

उसके तट पर आया है 

स्वंय राम।।


ज्वाला अनल अडिग क्रोध

देख रघुवीर जमवन्त विभीषण

हतप्रद बानर रीछ ।।


अति विनम्र करुणा के स्वंय जो

सागर उर में जिनके उठता

विध्वंसक ज्वार सागर अस्तित्व

ही मिट जाएगा कैसे होगा युग

उद्धार।।


संसय में राम की सेना

लखन लाल को भाई क्रोध ही

भया बोले भईया मैंने तो किया

ही था सचेत सागर जड़ है 

जड़ से जड़ता ही सर्व सम्मत है।।


लखन लाल ने दिया 

सारंग कर पिनाक लिए

प्रत्यंचा पर वाण 

चढ़ाया रघुवीर।।


बोले आज सागर से 

सृष्टि विहीन कंरू 

सागर अहंकार का 

मान गर्दन करू

शपत जब तक 

सागर का अंत नहीं 

राम क्रोध का 

अर्थ नहीं।।


सागर के अंतर्मन में 

कोलाहल ज्वाला 

भीषण विकट विकराल

उथल पुथल सागर 

साम्राज्य में चहूं ओर

 हाहाकार।।


सागर ने देखा 

अस्तित्व अंत

लज्जित आत्म ग्लानि 

मर्यादा का तिरस्कार 

अपमान स्वंय के

अहंकार अभिमान में।।


आया सम्मुख 

क्षमाभाव में

वंदन पूजन 

थाल सजाए

रख माथा 

रघुकुल तिलक

चरण कमल में 

त्राहि त्राहि माम 

शरणागति बोला।।


बोला सागर प्रभु 

हम तो कुल सम्बन्धी 

कितने उपकारों से 

उपकृत मैं सागर 

रघुवंश का अंश मात्र।।


मेरा अस्तित्व 

हंस वंश सूर्य वंश के 

साथ सम्भव कैसे ?

सूर्यवंश से मेरा विनाश।।


करुणा सागर 

क्षमा सागर 

दया सागर 

मर्यादा पुरुषोत्तम से ही हो 

सागर को त्रास।।


बोले धीर वीर गभ्भीर

सुनो सागर ध्यान से

शांत चित्त मन से।।


कैसे पार उतरेगी 

सेना राम की

पथ का कैसे हो निर्माण ?

बतलाओ जैसे भी हो 

सागर सेना पार।।


बोला सागर

नल नील भ्राता द्वय 

पाहन फेंके 

मेरे जल में 

पाहन नही डूबेगा 

मेरी सतह पर ही तैरेगा

ऐसा ही है नल नील 

को ऋषि श्राप।।


सागर बंध जाएगा 

महिमा उसकी

घट जाएगी 

अभिमान अहंकार का

शमन हो जाएगा 

पथ राम सेना को

मिल जाएगा।।


क्षमा किया रघुवर ने 

सागर को

सागर अपराध बोध से 

ग्रसित अहंकार के 

अंधकार गहराई से

मुक्त रघुवर विजय पथ में 

स्वंय की गरिमा महिमा 

मिट जाने से 

आल्लादित प्रसन्न।।



नंदलाला मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।


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