STORYMIRROR

Ashok Goyal

Abstract

3  

Ashok Goyal

Abstract

तश्नगी मुझमें

तश्नगी मुझमें

1 min
215


मेरी तन्हाई, ख़ामोशी मुझमें।

ज़ीस्त भी मुझको ढूँढती मुझमें।


यूँ दिवानों सी रक़्स करती है

इक समन्दर की तश्नगी मुझमें।


ये तो मुश्किल है मैं बदल जाऊँ

अभी ज़िन्दा है आदमी मुझमें।


क्या तो हस्ती मिरी, वजूद मिरा

मुझको लगती है कुछ कमी मुझमें।


एक ज़र्रा हूँ मैं, मगर दुनिया

अपनी हस्ती तलाशती मुझमें।


गुनगुनाती है सुबह मुझमें कभी

तो कभी शाम, सुरमई मुझमें।


हर नफ़स मुझको जी रहा जो यहाँ

रहता है कोई अजनबी मुझमें।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract