थोड़ी सी उम्मीद
थोड़ी सी उम्मीद
जीवन की कड़वाहट
हर उस उम्मीद में है,
जो जाने अनजाने यूँ ही
कहीं तो साथ चल देती है।
रोक पाओ इन आँसुओं को
तो बता देना हमको भी,
कैसे लड़ा जाता है
बिखरी उम्मीदों से।
कहना आसान और निभाना कठिन
पल-पल इन्तज़ार फिर होता नहीं,
जब भी सर उठा के देखा
अकेले ही पाया है उम्मीद को।
बार-बार समझा लेते हैं
हम अपनी मायूसी को,
फिर एक बार मान ले बात
उम्मीद जो यह कहती है।
जिस चाह से शुरू हुआ था यह सफ़र
खो सी गयी है कहीं भीड़ में,
ढूँढने में लगे तो हैं सभी
अस्तित्व उसका आज भी लापता ही है।
वक्त जो गुज़र गया
मलाल शायद उसका नहीं,
तिनका-तिनका जोड़ी थी जो हिम्मत
क्या गलत और क्या सही
रहने दे ए उम्मीद
और हौसला ना दे हमको,
अनजान ही भले थे मुसाफ़िर
मंजिल का इरादा जब ना था।
