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Sudhanshu Sharma

Abstract

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Sudhanshu Sharma

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सवाल

सवाल

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सो रहा है कोई या जाग रहा है

बेवक़्त कोई वक्त अपना काट रहा है


ख़ुद से मिलना दुश्वार था अब तलक

अब आदमी आदमी से भाग रहा है


रूबरू खड़े भी हो तो पीठ करके मिल

बोल नहीं रहा वो शख़्स खांस रहा है


ख़ुदग़र्ज़ की है हर निज़ाम में गरज

वफादार हर दौर में बवाल रहा है


घर सड़के बाज़ार सब वीरान से खड़े

ज़मी पेड़ पानी, सेहत याब बना है


वो सबसे मिलकर एक और मैं मुंतशिर

फिर अपना कुछ ऐसा हिसाब रहा है


ज़हर है फिज़ाओं में तो सांस ले न ले

कोई इस क़दर ख्याल-औ-खौफ ज़दा है


उसने जब कहा, क्या हो तुम फ़कत

फिर हमें वजूद का मलाल रहा है


यहां से उठे तो फिर किस तरफ़ चले

सवाल था सवाल है सवाल रहा है।


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