सुखमय जीवन पाओगे
सुखमय जीवन पाओगे
कलह क्लेश की दुनिया, किसके मन को भाती
लड़ते लड़ते आत्माएं, देखो कितना थक जाती
अन्तर्मन में झांको जरा, कैसा है मेरा ये जीवन
मन मुटाव से भर गया, जो था सुख का आंगन
अशुद्ध हुआ सबका मन, बन गए सभी विकारी
सबके मन बुद्धि पर, बैठी है रावण की गृहचारी
ग्रहण लगा है राहू का, जो सबको दुखी बनाता
विकारों का कालापन, सबके ऊपर चढ़ जाता
आती याद परमपिता की, दुखों से हमें छुड़ाओ
घिर गए काँटों के जंगल में, आकर हमें बचाओ
कहता हमें परमपिता, मेरी श्रीमत को अपनाओ
दान विकारों का देकर, तुम दुखों से मुक्ति पाओ
अपने संस्कारों को जितना, निर्विकारी बनाओगे
फूलों के उपवन समान, सुखमय जीवन पाओगे।