सुख दुख
सुख दुख
नवगीत
अंदर भरे हैं हलाहल
अवसादों के पार हुई ।
अश्रु आचमन करते रहते
अंतर्मन तार तार हुई ।।
तन मन एक नदी जैसे
उतर रही धीरे धीरे धीरे
प्राण बसती धमनियों में
डूब रही तीरे तीरे
फूल बन गए सख्त पत्थर
मानवता की हार हुई ।
दिवस आये हैं कराहते
कलप रहा देखो तन मन
याद आये अब न कोई
जल रहे जैसे भू अगन
सुख दुख अब आँखमिचौली
बीते दिन अब चार हुई ।
पैरों की पायल चुप है
जंजीरें बोल रही है
जीवन का भरोसा पाकर
बंद द्वार अब खोल रही है
खिले जो मुस्कान अधर पर
स्वप्न सभी साकार हुई ।
अंदर भरे•••
अवसादों के•••••
