सतरंगी शाम
सतरंगी शाम
बैठा हुआ उदास सा मैं गर्मी की एक शाम को
सोचूँ क्यों गुम है आसमान, ये मचा हुआ कोहराम क्यों
पंछी कंही दूर खोये हुए से बैठे हैं अपने घराने में
चिंतित मन को समझा रहा कब
दिखेंगे प्राकृतिक रंग मेरे सिरहाने में
तभी गर्जना से मन भाव विभोर उन्मुक्त हुआ
कैसा अजब सा ये शोर चहुँ ओर यूँ मुदित हुआ
कंही मिटटी की सुंगंधित यूँ खुशबू जो पड़ी
मन कल्पनाओं से भर उड़ने को विच्छुप्त हुआ
जो पड़ी धरातल पर ये बूंदे शीतल मन को मिठास दिए
आसमान मे खिल उठे गुल इस शाम का सतरंगी नाम लिए
ये कैसा अजब समां बांधा इस सतरंग ने
जैसे बालक करे अटखेलिया अपने माँ के संग में
प्रकृति ने नजारा समेटा एक धनुष के आकर में
सात रंगों से बना मुबारक हो ये त्यौहार तुम्हें।
