स्त्री
स्त्री
मैं स्त्री
हर सुख में तुम्हे गले लगाती हूं,
दुःख जब मंडराए
तुम्हे अपने आंचल से ढक लेती हूं,
तुम्हारी हर कमियों में साथ निभाती हूं
उफ्फ तक नहीं करती,
तुम्हारी सारी बलाओं को सर माथे रख लेती हूं,
मैं बेशक भुजाओं से कमजोर हूं
पर इरादों से सशक्त हूं,
मैं ईश्वर की गढ़ी वह खूबसूरत कृति हूं,
जिसके बिना सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती,
मैं सिर्फ़ एक ज़िस्म मात्र नहीं,
जिसमे जां भी बसती है
मैं एक इंसान भी हूं,
अपने हिस्से के सम्मान की
मैं पूरी हक़दार हूं ,
मैं स्त्री हूं,
जो अपना सब छोड़- छाड़
तुम जैसे हो वैसे अपना लेती हूं,
तुम्हे अपना सब कुछ मान लेती हूं,
तुम पल भर के लिए
आंखों से जब ओझल होते हो,
मैं सहम जाती हूं डर जाती हूं,
क्योंकि यही मैंने सीखा
यही म
ुझे सिखाया गया बचपन से
कि पति है तो सब कुछ है,
पति नहीं तो जिंदगी कुछ नहीं है,
ना मैं ना मेरा स्वयं का अस्तित्व,
मैं घंटों बैठ यही सोचती हूं,
मैं स्त्री बस तुम सहगामी हूं,
तुम्हारे धड़कन का बायां हिस्सा जरूर हूं,
पर मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए,
ना मैं चाहती हूं
अपना महिमा मंडन,
ना मुझे सुंदर आभूषणों से सजाया जाए
इसकी मुझे दरकार नहीं है,
मैं मानुषी,
मुझे बस स्वछंद जीवन चाहिए
जहां खुल कर सांस भर ले सकूं,
खुले आसमान में एक लम्बी उड़ान भर सकूं,
तुम संग मन की गिरह खोल सकूं,
दर्द,अपना बांट सकूं,
तुम मेरे अंतर्मन कि सीमा को,
मेरे सार को समझ सको,
मेरे सह अस्तित्व को
सहर्ष स्वीकार कर सको,
मैं स्त्री बस यही तो चाहती हूं,
और मेरी कोई ख्वाइश नहीं
ना कोई अपेक्षा,
बस मैं इंसान हूं
और मुझे भी इंसान समझो।