संतुलन....
संतुलन....
एक रोज चली जा रही थी कहीं...
तभी अचानक किसी ने कहा...
जरा ठहरो भी,मुझसे भी मिलो
मैंने उससे पूछा,कौन हो तुम?
वो बोला दु:ख नाम है मेरा,
मैं कुछ देर तुम्हारे संग चलूं
मैंने कहा,मुझे एतराज़ नहीं,
तुम मेरे संग चल सकते हो,
कुछ देर के बाद मुझे लगा कि
जैसे कोई परिचित मिल गया हो
और वो मेरा अंतरंग बन गया,
इसके बाद लगा ही नहीं कि वो
दु:ख है बहुत गहरा दुख भी कुछ
वक्त के बाद सुख में बदल जाता है
वो इतना अपना सा हो जाता है कि
आप उसे सुख के चेहरे से अलग नहीं
कर सकते,सुख और दुख के आकार
प्रकार बिल्कुल भी अलग नहीं होते,
जैसे की दो भाई जिनका स्वाभाव अलग है
सुख आया तो मैं उसे भोगने लगी, लेकिन
दुःख को भी तो मैंने सुख समझकर कांधे
पर टांग लिया,किसी झोले की तरह,
दुःख ऊबाऊ नहीं होता,वो हमेशा हमें
प्रगतिशील रखता है,सचेत रखता है,
ये कोई सृष्टि का नियम तो नहीं कि
हम दुःख में सुखी नहीं रह सकते
जीने और आगे बढ़ने का हौसला
हमें दुःख से ही मिलता है जबकि
सुख हमें थका देने वाला होता है
और हमें नाकारा बनाने के लिए ही
आता है, दुःख हमारा हाथ थामकर
हमें आगे ले जाता है और अग्रसर रहना
सिखाता है,सुख लाचार और निष्ठुर बनाता
है, हमें असंवेदनशील और दुष्ट बनाता है
ऐसे सुख के साथ रहने का कोई तात्पर्य
नहीं,ये जीवन है इसलिए इस जीवन में
हमें सुख और दुख का संतुलन बनाकर
रखना पड़ता है.....