संग से बनाम तक का सफर
संग से बनाम तक का सफर
क्षण भर में बदल जाता है जीवन इस कदर
यूं ही नहीं आसान संग से बनाम तक का सफर
चल पड़ती हैं वो अजनबी दिशा में लेकर सपने हजार
साथ सफर में होता केवल निश्चल प्रेम और विश्वास
कायम रहे सफर हमेशा क्यों भोज उसी पर डाला है
क्या थोड़ा दायित्व उसका नहीं जो साथ चलने वाला है
यूं तो सफर की कई पीड़ा सहना राह बड़ी आसानी है
केसे सहे पीड़ा प्रिय की जो कष्ट धूर्तता और बेईमानी है
पग में रहना सब कुछ सहना सब कुछ सहना
चलते जाना सामाजिक रीत पुरानी है।