संदेश
संदेश
सहमी, डरी हुई,
कमसिन तनख़्वाह
हर माह, चुपचाप सर झुकाए आ रही है
और एक "ज़रूरत" नाम का आशिक
सीटी हर महीने बजाता रहता है।
छेड़ता रहता है बार बार,
मजबूरियां दामन नहीं छोड़ती
और हौसला उम्मीद नहीं छोड़ने देता
बेबसी रोज तड़पा रही है।
मेरी लाचारगी मुझे हर पल खा रही है,
उम्मीद की लौ आगे बढ़ने का जज्बा जगा रही है।
मध्यमवर्गीय जीवन न उच्चस्तर पकड़ पाता है,
न ही अपने आपको निम्नस्तर में गिनवाता है।
अजीव सी हालत हो जाती है बीस तारीख के बाद
हर दिन महीना सा लगता है,
हर क्षण कहर बरपाती लू सा गुजरता है,
इंतजार माशूक से ज्यादा तनख्वाह का रहता है।
हर तकाजे वाले से साया दूर ही रहता है,
ऊपर से हारी बीमारी, कोई उत्सव मार जाता है।
लाचारी की कोढ़ में खाज कर जाता है,
ये बीस से तीस तारीख का सफर हर महीने
अनचाहा तनाव सा कर जाता है।
तनख्वाह के संदेश का सुबह से इंतजार
होता है, हर संदेश मानों रुपये जमा होने का ही
होता है, मुस्कुराता चेहरा बता देता है,
जिस्म फिर हरकत सी ले लेता है।
बीस से तीस तारीख के सफर का
आखिरी पड़ा मोबाइल का संदेश
फिर सुकून दे देता है।