समय
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समय की माया अपरंपार,
इक नहीं इसके रूप हज़ार,
धैर्य से बिताये,
हर समय को,
क्यूंकि परखता है
यह बारम्बार।
कभी धूप सा,
कभी छांव सा,
सोचूँ करना इस पर चिंतन और,
क्या नहीं इक व्यर्थ का काम ?
पर बात समय की एक विशेष,
है इसकी अनवरत चाल,
कभी गरल सा,
कभी सुधा सा,
पीने पड़ेंगे दोनों अवतार।
काटे इसे जो रोकर है,
ज़रा पूछो उसे इक बार
कि क्या पाया उसने हर बार ?
धैर्य से काट इसका हर पल,
क्यूंकि अधीर हुए कुछ लगे ना हाथ।
समय की माया अपरंपार,
इक नहीं इसके रूप हज़ार,
इक नहीं इसके रूप हज़ार।