श्रृंगार
श्रृंगार
उसने पूछा मुझसे अपने श्रृंगार को कुछ कहने को,
मैने दिया बता की तुम्हारा श्रृंगार ही वजह बनता है मेरे जीने को।
उसके माथे की बिंदिया मुझे शिव की तीसरी आँख जान पड़ती है
जो भस्म कर दे हर बुरी नज़र जो ओर मेरी देखती है।
जब वो अपनी आँखों पे काजल लगाती है
तो ऐसा लगता है मेरे जीवन को उसने काला टीका लगा दिया हो।
कोमल से होटो पे जब वो रंग लगाती है
तो मानो मेरे जीवन को वो रंग देती है।
जब वो गले में अपने मंगल सूत्र धारण करती है
तो लगता है ऐसे की एक नया जीवन वो मुझको देती है।
माँग में अपनी जब वो सिंदूर लगाती है तो मानो
उसने संकल्प किया हो कि हर खतरे से वो मुझसे पहले ही भीड़ जाएगी।
पैरो में पायल जब वो पहन लेती है तो जैसे
मेरे कदमो को मंजिल से मेरी वो कसके बाँध लेती है।
बिछुए उसके ऐसे जान पड़ते हैं कि किसी भी
मुसीबत को वो कुचल कर आगे मुझे ले जाएगी।
मानो वो श्रृंगार नही है, है कवच मेरा और केवल इसको श्रृंगार समझना होगा
उपहास उस नारी का जिसने सारा जीवन किया न्यौछावर भूल सब कुछ अपना।
