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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -३६; मन्वंतर काल विभाग का वर्णन

श्रीमद्भागवत -३६; मन्वंतर काल विभाग का वर्णन

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मैत्रेय जी कहें, हे विदुर जी 

पृथ्वी का जो सूक्षमतम अंश है 

जिसका कोई विभाग ना हो सके 

उसको परमाणु कहते हैं।


दो परमाणु मिलें अनु बने 

तीन अणुओं से त्रसरेणु होता 

जो झरोखों की सूर्य किरणों में 

उड़ता हुआ है देखा जाता।


जितना समय लगे सूर्य को 

तीन त्रसरेणुओं को पार करने में 

उस समय की गिनती कहें तो 

हम उसको त्रुटि हैं कहते।


त्रुटि से दोगुना काल जो है 

वो काल वेध कहलाता 

तीन वेध का एक लव होता 

तीन लव एक निमेष हो जाता।


तीन निमेष को एक क्षण कहें 

पाँच क्षण की एक काष्ठा होती है 

पन्द्रह काष्ठा का एक लघु 

पन्द्रह लघु की नाडिका होती है।


दो नाडिका का एक मुहूर्त

छह - सात नाडिका का एक प्रहर है 

जिसको हम याम कहते हैं 

जो दिन या रात का चौथा भाग है।


चार - चार प्रहर के दिन या रात हैं 

पन्द्रह दिन रात का एक पक्ष है 

शुक्ल और कृष्ण प्रकार का 

इन दोनों को मिलकर एक मास है।


ये मास पितरों का एक दिन रात है 

दो मास की एक ऋतु है 

छ मास का एक अयन

दक्षिनायन और उत्तरायण है।


दोनों मिलकर वो बन जाते हैं 

मनुष्यों के बारह मास हैं 

या कहें इसे एक वर्ष जो 

देवताओं का एक दिन रात है।


एक सौ वर्ष की मनुष्य की आयु 

जो पुराण हैं हमें बताते 

चंद्रमा,नक्षत्र और सूर्य 

भुवनकोश की परिक्रमा किया करते।


तेजस्वरूप ये सूर्य देव ही 

विदुर, तुम पूजो सूर्य को 

पुरुष की आयु का क्षय करते 

आकाश में विचरते रहते हैं जो।


विदुर कहें, हे मैत्रेय मुनि जी 

जो त्रिलोकि के बाहर हैं रहें 

उन सनकादि ज्ञानी मुनियों की

आयु का उनकी अब वर्णन करें।


मैत्रेय जी कहें, कि हे विदुर जी 

सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग

देवताओं के बारह सहस्त्र वर्ष तक 

रहते हैं ये चारों युग।


चारों युगों की हो

ती अवधि है 

सहस्त्र दिव्य वर्षों में 

सतयुग के चार, त्रेता के तीन 

द्वापर के दो, एक कलयुग के।


प्रत्यक में जितने सहस्त्र वर्ष हैं 

उससे दुगने सो वर्ष ही 

उनकी संध्या और सन्ध्याशों में 

मैं बताऊँ उनकी गनना को।


सतयुग के चार हज़ार दिव्य वर्ष

आठ सौ संध्या और सन्ध्याशों के 

कुल ४८०० दिव्य वर्ष हैं 

त्रेता के ३६०० हैं होते।


द्वापर के २४०० हैं और 

कलयुग के १२०० दिव्य वर्ष 

देवताओं का दिन रात एक 

मनुष्यों का होता एक वर्ष।


कलयुग के पूरे ४३२०००वर्ष 

इससे दुगुने द्वापर के हैं 

तिगुने वर्ष त्रेता के हैं 

सतयुग के चार गुना हैं।


युग के आदी में संध्या होती है 

अंत में संध्यांश है होता 

इन दोनों के बीच में जो है 

वही समय युग का है होता।


सतयुग में धर्म के चार चरण हैं 

हर युग में एक क्षीण हो जाता 

त्रेता में तीन, द्वापर में दो 

कलयुग में चरण वो एक हो जाता।


त्रिलोकि के बाहर महर्तलोक में 

ब्रहमलोक पर्यन्त यहाँ पर 

एक सहस्त्र चतुर्युगी का दिन हो 

इतनी ही बड़ी है रात यहाँ पर।


उस रात में शयन करें ब्रह्मा 

रात का अंत हो, कल्प प्रारम्भ हो 

उसका क्रम चलता रहे तब तक 

जब तक ब्रह्मा का दिन ना ख़त्म हो।


एक कल्प में चोदह मनु हो जाते 

सब मनु अपना अधिकार भोगते

इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक 

काल तक वो वहाँ हैं रहते।


यह प्रतिदिन की सृष्टि ब्रह्मा की 

लोकों की रचना जिसमें होती 

अपने कर्मों के अनुसार ही देवता 

मनुष्यों की उत्पत्ति होती।


दिन जब ये खतम हो जाता 

लीन हों सब तब ब्रह्मा में 

ब्रह्मा की आयु सौ वर्ष है 

उसके आधे को प्रारर्ध हैं कहते।


पहला प्रारब्ध बीत चुका है अब तक 

दूसरा प्रारर्ध अभी चल रहा है 

दो प्रारब्ध का काल जो है वो 

हरि का एक निमेष होता है।


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