श्रीमद्भागवत-२४९; द्वारका गमन,
श्रीमद्भागवत-२४९; द्वारका गमन,


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
मुचकुन्द पर अनुग्रह किया कृष्ण ने
भगवान को नमस्कार कर
गुफा से वे बाहर निकल गए।
बाहर निकलकर देखा उन्होंने कि
मनुष्य, पशु, वृक्ष आदि जो
पहले की अपेक्षा आकार में
छोटे छोटे हो गए हैं वो।
इससे जानकर कि कलियुग आ गया
गन्धमादन पर्वत पर चले गए
बद्रिकाश्रम में जाकर
भगवान की आराधना करने लगे।
कृष्ण लौट आए मथुरा में
देखा कि कालयवान की सेना ने
मथुरा को घेर रखा है
संहार किया मलेच्छों का उन्होंने।
सारा धन छीनकर उनका
द्वारका की और ले चले
जिस समय द्वारका को जा रहे
जरासन्ध आ गया वहाँ फिर से।
अठारहवीं बार सेना ले अपनी
आ धमका उनके सामने
प्रबल बल देख शत्रु सेना का
कृष्ण भगवान भागे वहाँ से।
मनुष्यों की सी लीला करते हुए
मानो अत्यंत भयभीत हो गए हों
सबका सब धन वहीं छोड़कर
परवर्षण पर्वत पर पहुँचे भाई दोनों।
परवर्षण पर्वत कहते उसे इसलिए
कि सदा मेघ वर्षा करें उसपर
जरासन्ध ने जब देखा कि
दोनों छिप गए उस पर्वत पर।
और ढूँढने पर भी कुछ पता ना चला
तब पर्वत को चारों और से
आग लगाकर जला दिया उसने
सोचे के दोनों इसमें जल गए।
दोनों भाइयों ने बड़े वेग से
ग्यारह योजन पर्वत के नीचे
छलांग लगा दी थी पृथ्वी पर
उन्हें देखा नहीं वहाँ किसी ने।
फिर द्वारका पुरी चले गए दोनों
मगध देश गए जरासन्ध भी
यह मानकर था बैठा वो
कि मर चुके हैं दोनों भाई।
इधर ब्रह्मा जी की प्रेरणा से
रेवत जी ने अपनी कन्या को
रेवती जिसका नाम था
व्याह दिया बलराम जी को।
परीक्षित, शिशुपाल और उसके साथी
नरपतियों को हराकर कृष्ण ने
विदर्भ देश की राजकुमारी
रुक्मणी से विवाह किया उन्होंने।
राजा भीष्मक की कन्या वो
अवतार थीं वो लक्ष्मी जी का
राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन
सुनाइये ये सब कैसे हुआ।
हमने सुना कि भगवान कृष्ण ने
बलपूर्वक हरन कर उनका
राक्षस विधि के साथ ही
उनके संग विवाह किया था।
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
भीष्मक अधिपति थे विदर्भ देश के
उनके एक कन्या रुक्मणी
और पाँच पुत्र थे उनके।
सबसे बड़े का नाम था रुक्मी
और जो चार छोटे थे
रुकमरथ, रुक्मबाहु, रुकमकेश और रुक्ममाली
ये उन चारों के नाम थे।
सौंदर्य, पराक्रम की प्रशंसा सुनी थी
भगवान कृष्ण की, रुक्मणी ने
उनके महल में आने वाले अतिथि
गुण कृष्ण के गाया करते थे।
तब उन्होंने यही निश्चय किया
कि मेरे अनुरूप पति श्री कृष्ण हैं
भगवान कृष्ण भी समझते थे कि
रुक्मणी में बड़े सुन्दर लक्षण हैं।
परम बुद्धिमती है रुक्मणी
अद्वितीय है सौंदर्य, गुणों में
मेरे अनुरूप पत्नी है सोचकर
निश्चय किया कि विवाह करूँगा उससे।
रुक्मणी जी के भाई बंधु भी
चाहते थे कि उनकी बहन का
विवाह हो श्री कृष्ण से, परन्तु
रुक्मी ने ये होने से रोक दिया।
रुक्मी द्वेष रखता था कृष्ण से
और वो शिशुपाल को ही
अपनी बहन के योग्य समझता
चाहता था विवाह हो उसी से ही।
रुक्मिणी को जब यह मालूम
हुआ
कि बड़ा भाई करना है चाहता
विवाह उनका शिशुपाल से
तो उनका मन उदास हो गया।
एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को
तुरंत कृष्ण के पास था भेजा
द्वारका पहुँचकर उस ब्राह्मण ने
आदिपुरुष भगवान को देखा।
कृष्ण ने उन्हें अपना आसन दिया
पूजा, सत्कार किया था उनका
हाथों से पैर दबाते हुए उनके
शान्त भाव से ये था पूछा।
‘ ब्राह्मण शिरोमणे, आपका चित तो
सदा संतुष्ट रहता है ना
धर्म का पालन करने में
आपको कोई कठिनाई तो ना।
ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाए
संतुष्ट रहे वो उसी में
धर्म का पालन करता रहे तो
ये संतोष ही सब कामनाएँ पूर्ण करे।
यदि इंद्र का पद पाकर भी
किसी को संतोष नहीं तो
सुख के लिए लोकों में भटकेगा
शान्ति से ना बैठ सके वो।
परन्तु जिसके पास तनिक भी
संग्रह, परिग्रह नहीं है कुछ भी
और उसी में संतुष्ट वो
नींद सोता है वो तो सुख की।
स्वयं प्राप्त हुई वस्तु में
संतोष कर लेता है वो
और जिसका स्वभाव मधुर है
हितैषी सब का, अहंकार रहित जो।
सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ
उस ब्राह्मण को मैं अपना
ब्राह्मणदेव, आपके राज्य में आपका
पालन पोषण अच्छे से तो होता।
अच्छी तरह से होता है
प्रजा का पालन जिस राज्य में
और प्रजा आनंद में रहे
है बहुत प्रिय वह राज्य मुझे।
ब्राह्मणदेव, आप कहाँ से
किस देश से और अभिलाषा से
इतना कठिन मार्ग तय करके
यहाँ पधारे हैं बतलाइए।
परीक्षित, लीला धारी भगवान ने
जब ऐसे पूछा था उनसे
सभी बातें सुनाकर ब्राह्मण फिर
रुक्मिणी जी का संदेश सुनाने लगे।
रुक्मिणी जी ने कहा है
‘गुण और रूप सौंदर्य का आपके
श्रवण करके मेरा चित ये
लज्जा छोड़ प्रवेश कर रहा आपमें।
कुल, शील, विद्या, गुणों में
अद्वितीय आप, समान अपने ही
आपको देखकर शांति का अनुभव
करते हैं जितने भी हैं प्राणी।
आप ही बताइए कौन सी
महागुणवती कन्या होगी जो
पति रूप में वरण ना करे
विवाह योग्य होने पर आपको।
इसलिए प्रियतम, मैंने आपको
वरण किया है पति रूप में
आत्मसमर्पण कर चुकी आपको
ये बात छुपी नहीं है आपसे।
यहाँ पधार कर आप मुझे
पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिए
और मुझपर प्रसन्न होकर फिर
मेरा पाणिग्रहन आप करें।
शिशुपाल अथवा कोई भी पुरुष
मेरा स्पर्श ना कर सके
जिस दिन मेरा विवाह होना हो
आ जायिए उससे एक दिन पहले।
यहाँ आकर शिशुपाल, जरासन्ध की
सेनाओं को तहस नहस करें
कुलदेवी का दर्शन है करती
कन्या विवाह से एक दिन पहले।
हमारे कुल की ऐसी प्रथा है
कन्या मंदिर में है जाती
वहाँ आकर हर लेना मुझे
ले जाना अपने साथ ही।
आपके चरणों का प्रसाद और धूलि
जो मैं प्राप्त ना कर सकी
तो व्रत द्वारा शरीर सुखाकर
प्राण छोड़ दूँगी मैं वहीं।
चाहे सैकड़ों जन्म लेने पड़ें
आपको ही मैं वर चुनूँगी
आपके चरणों का प्रसाद ये
पाऊँगी ही कभी ना कभी।
ब्राह्मण ने कहा, यदुवंश शिरोमणे
यह संदेश है रुक्मिणी जी का
विचार कीजिए इस सम्बन्ध में
सोच लीजिए जो भी है करना।