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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१७६; नाभाग और अम्बरीष की कथा

श्रीमद्भागवत -१७६; नाभाग और अम्बरीष की कथा

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श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

नाभाग था मनुपुत्र नभग का पुत्र

दीरघ काल तक ब्रह्मचर्य का पालन कर

जब आया वो घर लौटकर।


छोटा था पर विद्वान बड़ा था

उसे हिस्सा न दिया बड़े भाईओं ने

संपत्ति तो पहले ही थी बाँट ली 

केवल पिता दिए उसे हिस्से में।


बड़े भाईयों से उसने जब पूछा

मुझे हिस्से में क्या दिया है

उन्होंने उत्तर दिया की हम तुम्हे

बस पिता जी ही देते हैं।


पिता से जाकर कहें वे, पिता जी

बड़े भाईओं ने मुझे हिस्से में

आपको ही मुझे दिया है

क्या अब करना चाहिए मुझे। 


पिता ने कहा, अंगिरस गौत्र के

ब्राह्मण इस समय ब्रह्मयज्ञ कर रहे

परन्तु प्रत्येक छठे दिन अपने

कर्म में भूल कर बैठते वे।


पास जाकर उन महात्माओं के

वैश्वदेव सम्बन्धी दो मूक्त बता दो

जब वे सब चले जायेंगे

तुम्हे दे जाएं, बचा हुआ धन जो।


इसलिए उन्हीं के पास चले जाओ

वैसा ही किया फिर नाभाग ने

यज्ञ का बचा धन उसे दे दिया

जब ब्राह्मण थे स्वर्ग जा रहे।


जब नाभाग धन था लेने लगा

उत्तर दिशा से एक पुरुष आ गया

'' यज्ञभूमि से जो बचा वो मेरा है''

नाभाग से उसने तब था ये कहा।


नाभाग ने कहा, ऋषिओं ने यह

मुझे दिया, मेरा है इसीलिए

काले रंग के उस पुरुष ने तब कहा

तुम्हारे पिता से पूछें, इस विषय में।


पिता से पूछा जब नाभाग ने

उसको बतलाया पिता ने था तब

एक बार दक्ष प्रजापति के यज्ञ में

निश्चय यह कर चुके ऋषिलोग सब।


यही कि बचा जो कुछ भी यज्ञ में

हिस्सा सब वो रूद्र देव का

इसलिए मिलना चाहिए है

महादेव जी को धन सब यह।


नाभाग ने उन रूद्र भगवान् को

प्रणाम किया फिर जाकर वहां

कहें प्रभो, ये सब है आपका

मेरे पिता जी ने है ये कहा।


भगवान्, मुझसे अपराध हुआ है 

क्षमा मांगता हूँ आपसे

रूद्र कहें, धर्म के अनुकूल निर्णय

दिया है तुम्हारे पिता ने।


वेदों का अर्थ तुम पहले से जानते

सनातन ब्रह्मतत्व का ज्ञान देता तुम्हे

यज्ञ से बचा जो मेरा अंश यहाँ

वह धन भी मैं हूँ देता तुम्हे।


भगवान् कहें, तुम स्वीकार करो इसको

और रूद्र इतना ही कहकर

वहां से अंतर्धान हो गए

नाभाग पर अपनी कृपाकर।


नाभाग के फिर अम्बरीष पुत्र हुआ

भगवान् का बड़ा प्रेमी, धर्मात्मा

जिस ब्रह्मशाप को कभी रोका न जा सके

अम्बरीष को वो स्पर्श भी न कर सका।


राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन

कथा सुनना चाहूँ अम्बरीष की

श्री शुकदेव जी कहें,परीक्षित

भाग्यवान थे अम्बरीश बड़े ही।


पृथ्वी के सातों द्वीपों की सम्पति

और अतुलनीय ऐश्वर्य प्राप्त उन्हें

फिर भी वे इन सबको

स्वप्नतुल्य ही समझते।


क्योंकि वे जानते थे कि

पडकर मनुष्य इस धन, वैभव में

घोर नर्क में चला जाता है

चार दिन की चांदनी है ये।


भगवान् कृष्ण और उनकी भक्ति में

उनका अनन्य प्रेम था

और अपने मन को उन्होंने

चरणों में कृष्ण के लगा रखा था।


वाणी को भगवदगुणावर्णन में

कानों को कथा के श्रवण में

नेत्रों को प्रभु के मंदिर के दर्शन

अंगों को स्पर्श में भगवद भक्तों के।


नासिका तुलसी की गंध में

जो भगवान् के चरणकमलों पर चढ़ी

जिव्हा को संलग्न किया नैवेद्य प्रसाद में

जो अर्पित भगवान् के प्रति।


भगवान् के क्षेत्र आदि की

पैदल यात्रा में लगे पैर थे उनके

और सिर से भगवान् कृष्ण के

चरणकमलों की वंदना करते।


भोग सामग्री को राजा अम्बरीष ने

भगवान् के प्रति समर्पित कर दिया

और पृथ्वी का शासन करते

ले भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा।


धन्व नाम के निर्जल देश में 

अशव्मेघ यज्ञ किये उन्होंने 

अनेकों चरित्रों का श्रवण करती थी 

प्रजा भी उनकी, भगवान् के। 


इच्छा न करता था कोई 

मनुष्य उनके राज्य में स्वर्ग की 

ह्रदय में हरि का स्मरण करें 

भोग सामग्री सब तिरस्कृत थी।


राजा अम्बरीष ने धीरे धीरे 

परित्याग कर दिया आसक्तिओं का 

धन, स्त्री, पुत्र, ऐश्वर्य 

असत्य हैं ये, ऐसा कर निश्चय। 


भक्ति को उनकी देखकर 

भगवान् उनसे प्रसन्न हो गए 

सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया 

प्रभु ने उनकी रक्षा के लिए। 


पत्नी भी राजा अम्बरीष की 

धर्मशील थी, समान उन्हीं के 

भक्तिपरायण बहुत थीं 

संसार से विरक्त थीं वे। 


एक बार पत्नी के साथ में 

कृष्ण आराधना करने के लिए 

द्वादशीप्रधान एकादशी व्रत करने का 

नियम ग्रहण किया उन्होंने। 


व्रत के समापन पर उन्होंने 

यमुना में स्नान कर, पूजा की कृष्ण की 

भगवान् का अभिषेक भी किया 

ब्राह्मणों को गौएं दान कीं। 


साठ करोड़ गायें सुसज्जित 

भेज दीं घर पर ब्राह्मणों के 

ब्राह्मणों की आज्ञा लेकर तब 

तैयारी की व्रत पारण की उन्होंने। 


उस समय स्वयं ऋषि दूर्वाशा 

पधारे वहां पर अतिथि रूप में 

राजा ने उनकी पूजा की 

प्रार्थना की फिर भोजन के लिए। 


दुर्वाशा ने स्वीकार कर लिया और 

निवृत होने आवश्यक कर्मों से 

नदी के तट पर चले गए 

यमुना में स्नान करने लगे। 


उधर घडी भर शेष रह गयी 

द्वादशी के ख़त्म होने में 

धर्म संकट में पड़कर अम्बरीष ने 

परामर्श किया वहां ब्राह्मणों से। 


उन्होंने कहा, ब्राह्मण देवता 

 ब्राह्मणों को बिना भोजन कराये ही 

खुद खा लेना पाप है और 

पाप है व्रत का पारण न करना भी। 


इसलिए जैसा करने में 

इस समय भलाई मेरी हो 

ऐसा काम करना चाहिए कि 

पाप भी न लगे मुझको। 


उन्होंने फिर कहा, ब्राह्मणो 

ऐसा श्रुतियों में कहा गया है 

जल पी लेना भोजन करना भी 

और नहीं भी करना है। 


इसलिए इस समय केवल मैं 

करने लगा हूँ पारण जल से 

ऐसा निश्चय कर मन ही मन वे 

भगवान् का चिंतन करने लगे। 


राजा अम्बरीष ने जल पी लिया 

दुर्वाशा जी की वाट देखते 

जब दुर्वाशा वहां पर आये 

अभिनंदन किया राजा अम्बरीष ने। 


अनुमान से समझ गए दुर्वाशा 

पारण कर लिया है राजा ने 

थर थर कांपने लगे दुर्वाशा 

फटकारें राजा को क्रोध में। 


कहें, देखो कितना क्रूर है 

धन के मद में मतवाला हो रहा 

धर्म का उलंघन करता ये 

मुझे खिलाये बिना ही खा लिया। 


क्रोध से जल उठे दुर्वाशा 

एक जटा उखाड़ी अपनी 

और अम्बरीष को मारने के लिए 

उसमें से एक कृत्य उत्पन्न की। 


आग समान दहक रही वो 

टूट पड़ी राजा पर तलवार ले 

परन्तु राजा उसे देखकर 

तनिक भी विचलित न हुए। 


नियुक्त किया जो सुदर्शन चक्र 

उनकी रक्षा को भगवान् ने 

राख कर दिया था कृत्या को 

जलाकर फिर उस चक्र ने। 


चक्र उनकी और आ रहा 

दुर्वाशा ने जब देखा ये 

प्राण बचने के लिए अपने 

एकाएक भाग निकले वे। 


पीछे पीछे दौड़ने लगा 

चक्र भगवान् का दुर्वाशा के 

सुमेरु पर्वत की और दौड़े वो 

प्रवेश करने को गुफा मैं। 


दिशा, आकाश, पृथ्वी, समुन्द्र 

अनेक लोकों में, स्वर्ग तक गए 

परन्तु सुदर्शन पीछे लगा रहा 

दुर्वाशा का पीछा वो न छोड़े। 


देवशिरोमनी ब्रह्मा जी के 

पास गए थे तब दुर्वाशा 

कहें, आप स्वयंभू हैं, करें 

इस चक्र से मेरी रक्षा। 


दुर्वाशा से कहा ब्रह्मा जी ने कि 

समाप्त हो जब आयु मेरी 

लीला समेटें प्रभु, तब उनमें ही 

लीन हो संसार ये, और मेरा लोक भी। 


मैं, शंकर, दक्ष, भृगु आदि प्रजापति 

जिनके बनाये नियमों में बंधे हैं 

तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य कर 

इस संसार का हित करते हैं। 


बचाने की उनके भक्त के द्रोही को 

समर्थ नहीं है हम लोगों में 

दुर्वाशा निराश तब हो वहां से 

भगवान् शंकर की शरण में गए। 


महादेव कहें, दूर्वाशा जी 

ब्रह्मा जैसे जीव और ब्रह्माण्ड ये 

और इसके जैसे हजारों 

चककर काटते रहते जिनमें। 


उन अनन्त परमेश्वर के सम्बन्ध में 

हम कुछ नहीं कर सकते 

जान सकते न उनकी माया को 

हैं हम उसी माया के घेरे में। 


उन विश्वेश्वर का शस्त्र ये चक्र 

असह है ये हम लोगों के लिए 

भगवान् ही तुम्हारा मंगल करेंगे 

जाओ तुम उन्ही की शरण में। 


निराश होकर वहां से भी फिर 

दुर्वाशा वैकुण्ठ को गए 

चक्र की आग से जल रहे थे वे 

गिर पड़े प्रभु के चरणों में। 


कहने लगे हे अच्युत ! आप 

एकमात्र वांछनीय हैं संतों के 

हे प्रभु, मैं अपराधी हूँ 

आप मेरी रक्षा कीजिये। 


परम प्रभाव आपका न जानकर 

इस परम भक्त का आपके 

मैंने जो अपराध किया है 

आप मुझे उससे बचाइए। 


भगवान् कहें, दुर्वाशा जी 

अधीन हूँ मैं सर्वथा भक्तों के 

मेरे भक्तों ने मेरे ह्रदय को 

कर रखा अपने हाथ में। 


भक्त मुझे प्यार करते हैं 

और उनसे प्यार करता मैं 

भक्तों का एकमात्र आश्रय हूँ 

तनिक भी सवतंत्र नहीं मैं। 


अपने भक्तजनों को छोड़कर 

अपने आपको भी न चाहता मैं 

स्त्री, पुत्र छोड़ शरण में आये जो 

उनको कैसे छोड़ सकता मैं। 


अपनी साधु भक्ति के द्वारा 

अपने ह्रदय के प्रेम बंधन में 

वो बाँध लेते हैं मुझको 

अपने वश में मुझे कर लेते। 


सेवा में ही वो कृत कृत मानते 

स्वीकार न करें मुक्ति को भी 

जो समय के साथ नष्ट हों 

बात ही क्या फिर उन वस्तुओं की। 


मेरे ह्रदय में मेरा भक्त है 

भक्तों के ह्रदय में, स्वयं मैं 

मेरे अतरिक्त वो जानें कुछ न 

उनके अतरिक्त कुछ भी न जानूं मैं। 


दुर्वाशा जी, सुनिए आप अब 

आपको जिसका अनिष्ट करने से 

विपत्ति में पड़ना पड़ा है 

पास जाओ अब आप उसी के। 


अनिष्ट की चेष्टा करे जो साधुओं के 

अमंगल होता करने वाले का ही 

तपस्या, विद्या कल्याण के साधन 

हैं ब्राह्मणों के, इसमें संदेह नहीं। 


परन्तु यदि ब्राह्मण कोई 

उदण्ड और अन्यायी हो जाये 

उल्टा फल देने लगते हैं 

कल्याण के दोनों साधन ये। 


दुर्वाशा जी, कल्याण हो आपका 

पास जाइये, राजा अम्बरीष के 

तभी आपको शांति मिलेगी 

क्षमा मांग लीजिये उनसे।


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