STORYMIRROR

Krishna Khatri

Abstract

4  

Krishna Khatri

Abstract

श्मशान

श्मशान

1 min
478

सोचता हूं -

मेरी नियति क्या है ?

मेरा नाम लेना भी लोग 

समझते हैं अपशकुन !

कितनी धधकती चिताओं को 

झेला है मैंने अपनी छाती पर 


कितने - 

पवित्रों-अपवित्रों

अच्छों-बुरों को 

अपने हृदय से लगाया

फिर भी हुआ मैं

अपयश का भागी 


क्यों ?

क्या इसलिए कि -

मैं श्मशान हूं ?

वो प्रियजन

वो आत्मीय


जो -

एक प्राण

एक हृदय

होने का दावा करते हैं 

वे ही अपने उस -

प्रियजन और आत्मीय को 

मुझे सौंप जाते हैं अकेला 

क्या हो जाता है -

उनका वो दावा !


बड़ी बेरहमी से 

मेरी छाती पर सजाकर

धधकती चिता में -

फूंक जाते हैं !

यूं ही जलता हुआ छोड़ जाते हैं !


तब -

मैं ही तो उन्हें अपनाता हूं

अपने में समाहित -

कर लेता हूं 


वे ही - 

मेरे नाम से भी डर जाते हैं 

जब -

मेरी छाती को 

अपने पैरों तले रौंदते हुए

मुझे मनहूस समझकर 

शीघ्र ही उस प्रिय से 

अलविदा कह देते हैं !


वे यह भूल जाते हैं कि 

उन्हें भी -

उनके अपने ही 

यूं ही निसहाय अकेला

सौंप जाएंगे मुझे 

इसी तरह -

मेरी छाती पर 

चिता में फूंक जाएंगे !


और फिर

और फिर

और फिर

उन -

मुझसे डरने वालों को

मुझे अपशकुनी  

मानने वालों को भी 


मैं ही तो

अपने आंचल में समेटूंगा 

समेटता आया हूं अनादिकाल से 

फिर भी हूं मैं -

अपयश का भागी 

क्यों किसलिए ?


इसलिए कि -

मैं श्मशान हूं !

आश्रयस्थल होकर भी वीरान हूं !

 यही मेरी नियति है !


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract