शब्बा खैर
शब्बा खैर
रात लेती है अंगड़ाई
और चाँद बादलों में छिपा
अक्सर लिख देता है
एक नई इठलाती महकती नज़्म...
शब्बा खैर
आज मौसम का मिजाज़
कुछ बदला - बदला - सा है
हवाएं कर रही हैैं सरगोशी
बादल भी कुछ अनमना - सा है
तेरी आँखो में है मदहोशी या
फिज़ाओं में इक नशा - सा है...।
चाँदनी ले रही है अंगड़ाई
चाँद भी बहका - बहका - सा है
थाम लो मुझको अपनी बांंहों में
नेह अम्बर से बरस रहा - सा है
तुमने आज ये क्या कह दिया
मेरा चेहरा झुका - झुका - सा है
धानी चुनर है या प्रीत का रंग
आज मन -मयूर सतरंगी - सा है...।